पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२१६

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पदुमावति । ८ । नागमती-सुया-संवाद-खंड । [८६ दोहा। गढौंमा सोनइ साँधई भरौं सो रूपइ भाग। सुनत रूखि भइ रानी हिअइ लान अस लाग ॥ ८६ ॥ सर्वरि = स्मरण कर के । हेरा = देखा । सरवर = सरो-वर । बकुलो = वक को स्त्री। दई = देव = ईश्वर । अनूपा = अनुपम । श्रागरि = अय्य = श्रेष्ठ। छाजा मोहा = शोभित हा। चाँद = चन्द्र । लोन सुन्दर । बिलोन विना नमक के = विना सुन्दरता के। पूजदू = पूजती = बराबरी करती। अधिधारी= अन्धकारिणौ = अंधेरौ । पुहुप = पुष्य । माँथ = मस्तक। पाया = पद। साँधई = सुगन्ध-द्रव्य । रूखि = रूखी = रूक्ष । लोन = नोन॥ शुक ने पद्मावती के रूप को स्मरण कर हँस दिया, और रानी (नाग-मतौ) के मुख की ओर देखने लगा (हेरा ) ॥ (और कहने लगा, कि) (जिम सरो-वर में हम नहीं पाता, तिस के जल में बकुलो हंस कहाती है, (कहावत है, कि जहाँ कोई रूख नहौं तहाँ रँड-हौ रूख ) ॥ ईश्वर ने ऐसा अनुपम जगत बनाया है (कोन्ह ), (जिस में) एक से एक श्रेष्ठ रूप हैं | मन में गर्व कर के किसी का अच्छा नहीं होता (छाजा)। देखो, रूप का गर्व करने से ) चन्द्रमा घट गया, अर्थात् क्षीण होने लगा, और ( उस के पीछे ) राज ( दैत्य ) लगा ॥ अपने रूप पर चन्द्रमा का गर्व करना यह कथा प्रसिद्ध पुराणों में नहीं पाई जाती। कदाचित् किसी पारसौग्रन्थ में हो, अथवा कवि को केवल उत्प्रेक्षा हो ॥ (हे रानौ, ऐसी दशा में ) तहाँ पर कौन (किस को) सुन्दर ( लोन ) वा असुन्दर कहे। (मो, मैं तो यही समझता हूँ, कि) जिसे (कान्त कन्त) पति चाहे, वही सुन्दरौ (लोनी) है। सिंहल को स्त्रियाँ (नारियॉ) को क्या पूँछतौ हो, (इतनौ-ही बात समझ लो, कि) अँधेरी रात दिन को बराबरी नहीं करतो, अर्थात् सिंहल को स्त्रियाँ दिन के समान उज्वल हैं, और यहाँ को कालो रात्रि के समान काली हैं ॥ सो (हे रानी), तिन्ह (सिंहल को नारियों ) को काया ( काय = पारौर ) में पुष्य का सुगन्ध है, (दुस लिये लोग देवी समझ कर उन के पैर में माँथा टेकते हैं सो जिस पैर में सब का) माँथा है, अर्थात् माँथा लगा है, उस पैर का क्या वर्णन करूँ॥ वे स्त्रियाँ ( मो) सुगन्ध-द्रव्य-मिलित सुवर्ण से गढी हैं। और वे ( सो ) रूप और भाग्य (भाग ) से भरी हैं। (इतना) सुनते-हौ रानी (नाग-मतौ) रूखी हो गई, -