१५६ पदुमावति | ६ । राजा-मुया-संवाद-खंड । [es किरिनि करा भा पेम अँकूरू। जउँ ससि सरग मिलउँ होइ रूरू ।। सहस-उ करा रूप मन भुला। जहँ जहँ दिसिटि कवल जनु फूला ।। तहाँ भवर जिउ कवला गंधी। भइ ससि राहु केरि रिनि-बंधौ ॥ दोहा। तौनि लोक चउदह खंड सबइ परइ मोहि सझि। पेम छाँडि किछु अउरु न (लाना) जो देखउँ मन बूझि ॥ १८ ॥ - कर= नाउँ = नाम। रतन = रत्न (रत्न-सेन )। राता = रक्त। बाता = वार्ता। तुर्दू = त्वया = ते ने । सु-रंग = सु-रङ्ग = सुन्दर-वर्ण । मूरति = मूर्त्ति । चित=चित्त । चितर = चित्र । सुरुज = सूर्य। पूरि= पूर्ण हो कर । परगसौ = प्रकाशित हुई। रकत रक्त। काया = काय = शरीर । किरिनि= किरण | करा = कला । पेम = प्रेम । अकूरू = अङ्कुर- अँखुश्रा। ससि = शशौ। सरग = स्वर्ग। सूरू = सूर्य। सहम-उ = सहस्र-उ। करा = किरण । दिमिटि = दृष्टि । कवल = कमल । भवर = भ्रमर । गंधी = गन्ध से भरा । रिनि = ऋण | बंधी बंधा गया । चउदह = चौदह = चतुर्दश । खंड = खण्ड (भुवन ) । (पिछले दोहे में होरा-मणि ने जो पद्मावती के वर्णन में कहा, कि “उत सूर जस देखौ, " दूस) रवि के ( पद्मावती के) नाम को सुन कर रत्न-सेन रक्त हो गया, अर्थात् जैसे सूर्य के प्रकाश से सूर्य-कान्त मणि अग्नि-मय हो रक्त हो जाती है, उसी प्रकार यहाँ पद्मावती रवि के नाम-ही सुनने से यह रत्न (रत्न-सेन) लाल हो गया। (जानों उस रवि का तेज दूस के शरीर में पैठ गया, और लगा कहने, कि) रे पण्डित, (हौरा-मणि), फिर यही बात कह, अर्थात् पद्मावती का वर्णन कर ॥ (क्योंकि) ते ने जो उस सु-रङ्ग मूर्ति को कहा, अर्थात् जो उस सु-रङ्ग मूर्ति का वर्णन किया, वह चित्त में लग कर, अर्थात् सट कर, चित्र (तमबौर ) हो रही है ॥ जानाँ (वह मूर्त्ति) सूर्य हो कर ( मेरे) मन में बस गई, और सब घट (शरीर) में पूर्ण हो कर, अर्थात् भर कर, हृदय में प्रकाशित (विकसित) हुई। अब मैं सूर्य उस चन्द्र ( पद्मावती) की छाया ( प्रतिविम्ब) है, अर्थात् ज्योतिष शास्त्र से तो यह सिद्ध है, कि रवि के प्रतिविम्ब से चन्द्रमा में कान्ति आती है, परन्तु यहाँ उलटा हो गया, चन्द्र-रूपी पद्मावती-ही के प्रतिविम्ब से अब रत्न-सेन सूर्य कान्तिमान् हो सकता है, ( नहीं तो, अब मेरी ऐसी ॥
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