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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२४०

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पदुमावति । ९ । राजा-मुया-संवाद-खंड । [१०० चउपाई। राजइ लौन्ह अभि कइ साँसा । अइस बोलि जनि बोलु निरासा ॥ भलेहि पेम हइ कठिन दुहेला। दुइ जग तरा पेम जेइ खेला ॥ भीतर जो पेम मधु राखा। गंजन मरन सहइ जो चाखा ॥ जा नहिँ सौस पेम पँथ लावा। सो पिरिथुमि मह काहे क ावा ॥ अब मइँ पेम फाँद सिर मेला। पाउँ न ठेलु राखु कइ चेला । पेम-बार सो कहइ जो देखा। जेइ न देख का जान बिसे खा ॥ तब लगि दुख पिरितम नहि भेंटा । मिला तो गण्उ जनम दुख मेंटा ॥ दोहा। जस अनूप तुइँ देखौ नख-सिख बरन सिँगार। हद मोहिं आस मिलइ कइ जउँ मेरवद करतार ॥१०॥ इति राजा-सुथा-संवाद-खंड ॥ ६ ॥ । मधु= शहद। गंजन गञ्जन = ऊभि = ऊब कर = उद्विग्न हो कर । साँसा = श्वास । निरासा = निराशा = आशा से रहित । भलहि भले से। पेम = प्रेम । दुहेला = दुहेला= दुष्ट-खेल = दुःख से भरा। मान-ध्वंस अपमान। मरन मरण । महद् = सहता है। चाखा=चाषा = चूसा = स्वादु लिया। सौस = शीर्ष = शिर। पँथ = पन्था = राह। पिरिथुमि = पृथिवौ = भूमि। मेला = डाला। पाउँ= पैर। । ठेलु = टाल = हटाव। राखु = रख । कदू = कर के। चेला = शिय्य । बार = द्वार। बिसेखा = विशेष। पिरितम

प्रौतम = प्रियतम सब से प्यारा। नख = नह । सिख = शिखा = चोटौ। बरन

वर्णय = वर्णन कर। सिँगार = श्टङ्गार। श्रास = श्रामा = उम्मेद । जउँ = यदि। मेरवद् = मिलावे। करतार = कर्तारः = ब्रह्मा ॥ ( शुक के कहने पर ) राजा ने जब कर (घबडा कर ) श्वास लिया, (और कहने लगा, कि) ऐसौ निराश बोलो मत (जनि) बोल ॥ भले से दुःख से भरा (दुहेला ) प्रेम कठिन है, (परन्तु) उस प्रेम से जिस ने खेला वह दोनों जग को तर जाता है,