c ] सुधाकर-चन्द्रिका। १५६ 1 ॥ अनुकरण । अह-निसि = अहर्निश = दिन-रात । चिललाई = चिल्लाता है। रोस = रोष = क्रोध। नागन्ह = सपाँ को । पाँडुक = पाण्डुक पेंडुको । गिउ = ग्रीवा = गला । चाहि इच्छा कर के 1= चाह से। तीतर = तित्तिरपची। निति-हि = नित्य-हि = नित्य-हौ। दोख = दोष = पाप । कित =क्यों । मोख = मोक्ष ॥ (शुक ने कहा, कि) राजा प्रेम को सुनते-हो मन में न भूलो । प्रेम कठिन होता है। इस के लिये शिर दे दे तब (तो) ( यह प्रेम ) छाजता है (सोहता है), अर्थात् विना शिर दिये प्रेम की शोभा नहीं ॥ प्रेम के फन्दे में यदि पडा, तो (फिर वह ) नहीं छूटता । बहुताँ ने जो दे दिया (परन्तु प्रेम का) फन्दा नहीं टूटा, अर्थात् जौ के सङ्ग-हौं गया ॥ जितना गिरिगिट छन्द को धरता है, अर्थात् रूप को बदलता है, तितना (दूस प्रेम मार्ग में ) दुःख है । (दूस में पड कर प्राणो) क्षण क्षण में लाल, पौला, और क्षण में श्वेत होता रहता है ॥ प्रेम-हौ को जान कर, मयूर जो है, सो वन-वामी हुना, अर्थात् ग्रह से विरक्त हुआ, (और दूम के ) रोम रोम में नग-वामी (नाग-पाश) के फन्दे पडे ॥ वही (मो) नग-वासौ फन्दा घूम घूम कर (फिरि फिरि) (इस के ) पक्षों में पडा, ( इसी कारण यह ) उड नहीं सकता, और कैद हो कर, अरुझा रहता है, अर्थात् फँसा रहता है (मयूर के रो और पक्षों के ऊपर जो चित्र-कारी है, सो नाग-पाश फन्दे के ऐसी जान पडती है ) ॥ (फंसने-ही से दुःखी हो कर) मुण्उ मुण्उँ (मरा, मरा) ऐमा चिल्लाता है, और उसी रोस से, (कि नाग-पाश के फन्दे में मैं फँसा हँ), नागों को धर कर (पकड कर ) खाता है। पेंडुकी और शक के कण्ठ में भी वही (फन्दे का) चिन्ह है, (सो) जिस के गले में ( फन्दा) पडा, वह चाह से (अपना) जो देता है। तौतर के गले में जो फन्दा है, (उसी लिये ) (वह) नित्य-हो (अपने ) दोष को पुकारता है। (ऐसा न होता, तो) वह (सो) क्याँ पुकार कर ( हकारि) गले में फन्दे को डालता (मेल), और क्या मारने से मोक्ष होता है, अर्थात् नहीं होता ॥ यहाँ कवि को उत्प्रेक्षा है, कि तीतर के गले में जो कण्ठ-रूपौ फन्दा है, उमौ से दुःखी हो कर, तीतर बोलता है, जिम को बोलौ सुन, व्याधे उसे फन्दे में फंसा लेते हैं, और मार डालते हैं, तब, जौ के जाने पर भी, उस के गले का फन्दा नहीं टूटता, दूस लिये ऊपर जो कह आये हैं, कि “जौउ दोन्ह बहु फाँद न टूटा” यह बहुत ठीक है ॥६॥
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