१६४ पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [१०१ - 9 सम्बोधन न मानो तो, 'जिन केशों पर वासुकि बलि हो जाता है तो और (अन्य = अपर) नरेश क्या हैं, अर्थात् जो सर्प प्राणो मात्र का वैरी है वह जिन केशों की शोभा से मोहित हो बलि हो जाता है, तो उस शोभा को देख कर और नरेशों को क्या गिनती है। वे लोग तो पहले-ही बलि हो जायँगे,' यह अर्थान्तर कर सकते हो ॥ रानी ( पद्मावती) (सुगन्ध से भरौ जानौँ ) मालती है और (घूघर-वारे) केश (जानौँ गुथे हुए.) भ्रमर हैं। वे विष-धर भ्रमर (एक के ऊपर एक सुगन्ध लेने के लिये जानों) लड़ रहे हैं, और (उस मालती के ) सुगन्ध को ले रहे हैं ॥ ( पद्मावती) यदि (=जो) बेनी (= चोटी) को छोड कर बालों को झारने लगती है, (तो वे ऐसे काले और लंबे बाल हैं, कि उन को कालिमा से ) वर्ग से पाताल तक अंधेरा हो जाता है। यदि पद्मावती को प्रकृति मानो तो 'वह यदि परस्पर कर्म से बंधी हुई वस्तु-बेनी को छोड कर, अर्थात् अलग अलग कर, जिस समय बारों को, अर्थात् रव्यादि सप्त वारों को, झाड देती है, अर्थात् वार-द्योतक सूर्यादि को जब हरण कर लेती है, तो स्वर्ग से पाताल तक अन्धकार हो जाता है, यह अर्थान्तर कर सकते हो। साङ्ख्य-शास्त्र में लिखा है, कि जब प्रकृति में सूर्यादि सब पदार्थ लीन हो जाते हैं तब वही प्राकृतिक लय कहाता है जिस में अन्धकार-मात्र सर्वत्र व्याप्त रहता है। वे कोमल और कुटिल (टेढे टेढे) केश (जानों) नग (पर्वत) पर सर्प (= कारे) हैं, वा (नग कारे) काले नाग हैं, (जिन को शोभा से ) लहर से भरे सर्प को भुला देते हैं, अर्थात् जिन को शोभा के आगे साधारण सी को शोभा भूल जाती है ॥ यदि बैसारे' का अपभ्रंश 'बिमारे' मानो तो 'वे कोमल और कुटिल केश (ऐसे जान पड़ते हैं जानौँ ) काले पहाड पर लहर से भरे माँप बैठाये गये है' ॥ ( यहाँ शिरः-पृष्ठभाग काला पर्वत और उस पर काली लंबी लट सर्प समझो) ॥ जानों वे केश-सर्प मलयाचल के वाम से विद्ध हो गये हैं, (दुस लिये) शिर पर चढे चारो ओर लोट रहे हैं (वाम से अर्थात् सुगन्ध से विद्ध हो कर अन्यत्र जाने में असमर्थ हैं।) ( सुगन्ध से भरौ पद्मावती को मलयाचल समझो) ॥ वे घूघर-वारौ लट विष से भरौ, अर्थात् विष से बुझाई, प्रेम की टङ्खला हैं, (जो कि दर्शकों के ) गले में पड़ना चाहती हैं । ऐसे फंदे-वारे केश ( उस के) शिर पर पडे हैं (जो कि दर्शकों के) गले के फंदे हैं। पाठो कुल के जो नाग हैं वे सब ( आपस में ) उरझ कर (उस केश के ) कैदी हो गये । अर्थात् कई एक सर्प जो आपस में अरुझ कर बैठे रहते हैं। वहाँ पर कवि को . 1
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