पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२५६

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१६६ पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [१०२ - करवत = करपत्र = श्रारा। बेनी = वेणे = चोटी, वा यमुना सरखतौ का सङ्गम = प्रयाग। गाँग गङ्गा । सोती = स्रोत = धारा । तपा = तपखौ। चूरू = चूर्ण । मकु = क्या जाने । दुश्रादस = द्वादश = द्वादशादित्य। बानि = वर्ण । सोहाग = सौभाग्य वा सोहागा, जिस से सोने में और अधिक चमक आ जाती है। इस प्रान्त में स्त्रियाँ पहले मुखाभिमुख शिरो-भाग के केशों को अलग कर नासिकाग्र और भू-मध्यगत रेखा से उन का समान दो भाग कर एक भाग को दहिनौ और दूसरे को बाईं ओर झार सँवार कर ले जाती हैं, और उन को तौसी के लबाब से चिक्कन कर शिर में चिपका देती हैं उन्हीं को पटिया कहते हैं। दोनों पटियाँ के बीचो बीच जो एक शिर के ऊपर चमकौली धारी मौ शिरःपृष्ठावयव चमकता देख पड़ता है उसे माँग कहते हैं। विवाह के समय पति अपने हाथ से अपनी पत्नी के माँग में मैंदुर भरता है, उसी दिन से सधवा सर्वदा अपनी माँग को सेंदुर से भरी रखती है। जब तक कन्या का विवाह नहीं होता तब तक माँग खाली रहती है। कभी कभी शोभा के लिये कुछ केश और लाल डोरे को एक चोटी बना कर उस पर रख देती हैं। राजा बाबुओं के घर लाल डोरे के स्थान में मोतियों को लड रहती है। पटियाँ के केशावयव जो शिर के नीचे लटकते रहते हैं उन को गुह कर एक एक बेनी बना ली जाती है और शिर के पिछले भागों के केशों को भौ एकट्ठा कर एक बेनी तयार की जाती है। फिर स्त्री लोग दून तीनों बेनियों को पीछे की ओर एकट्ठाँ कर रंग विरंग के तार मिला कर उन से जूरा बनाती हैं। जूरा खसक न जाय इस लिये उसे काले-ही ऊन वा सूत के डोरे से कस कर बाँध देती है। इस प्रकार इस प्रान्त में पति-संयुक्ता स्त्री त्रिवेणी अर्थात् तीन वेणी से अपने सिर को संवारती है, और पति-वियुक्ता पति-वियोग-दुःख से सब केशों को एकट्ठाँ कर एक हौ वेणी बना शिर में लपेट लेती है। इस प्रान्त में यह रौति चिर काल से प्रचलित है। पति-वियुक्ता सौता के वर्णन में महर्षि वाल्मीकि ने भी लिखा है, कि 'एक-वेणै- धरा दौना त्वयि चिन्ता-परायणा' (सु. का . ६५ सर्ग का १४ वा श्लोक देखो)। जिम दिन स्त्रौ विधवा होती हैं उमौ दिन अपने माँग का सेंदुर धो कर निकाल डालती हैं और फिर माँग में सेंदुर नहीं डालतौं। सेंदुर और चूरौ के न रहने से विधवा का सङ्केत यह लौकिक रौति है। सधवा होने में मैंदुर का प्राधान्य किसी हमारे वैदिक कर्म में नहीं मिलता। - -