१६० पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [११० - १११ . दूस प्रकार कवि का भावार्थ है, कि जिस की वाणै से वाण का पति ब्रह्मा-हौ मोहित हो कर, शिर पौटने लगता है, उस वाणी को समता ब्रह्मा की पत्नी वाणों ( सरखतौ) कैसे कर सकती है। इस लिये जिस वाणी से सरखती और ब्रह्मा दोनों स्त्री-पुरुष हार कर शिर पौटते हैं, वह वाणो अनुपम और वर्णनातीत है। अर्थात् चिच्छक्ति-रूपा पद्मावती के अंश-रूप विष्णु के नाभी से निकले ब्रह्मा और उस को पत्नौ सरस्वती को क्या सामर्थ्य जो प्रकृति के वाणी का भेद पावे। दूसौ लिये वेचारे चारो वेद 'यतो वाचो निर्वतन्ते' इत्यादि कह कह कर लाचार हो हार मान कर चुप हो रहे हैं ॥ ११ ॥ . चउपाई। पुनि बरनउँ का सुरंग कपोला। एक नारंग के दुअ-उ अमोला ॥ पुहुप पंग रस अंब्रित साधे। केइ यह सुरँग खिरउरा बाँधे ॥ तेहि कपोल बाएँ तिल परा। जेइ तिल देख सो तिल तिल जरा ॥ जनु घुघुचौ ओहि तिल कर-मुहाँ। बिरह-बान साधेउ सामुहाँ॥ अगिन-बान तिल जानउँ सूझा। एक कटाछ लाख दस जूझा ॥ सो तिल गाल मेटि नहिँ गण्ज । अब वह गाल काल जग भण्ऊ॥ देखत नयन परी परिछाहौं। तेहि त रात साव उपराहौं दोहा। सो तिल देखि कपोल पर गगन रहा धुब गाडि खनहिं उठइ खन बूडइ डोलइ नहिं तिल छाडि ॥ १११ ॥ कपोला = कपोल = गाल। नारंग = नारङ्ग = नारंगी। दुष-उ = दोनौँ । अमोला= अमूल्य । वा अमोला = अमोरा = विना मोरे, अर्थात् उठे हुए। पुहुप = पुष्य । पंग = अपाङ्ग = नेत्र के नीचे का कपोल-भाग। माधे = साधे हुए हैं = साने हुए हैं। खिर- उरा = खैर के बडे बडे गोले । (खिरउरी का पुंलिङ्ग, ३६ ३ दोहे को टीका देखो। पुंलिङ्ग होने से उसी वस्तु को प्राकृति कुछ बडी समझनी चाहिए, जैसे हथउडौ से हथौडा, गिलउरी से गिलउरा, दउरी से दउरा, कराही से कराहा इत्यादि)। तिल
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