पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२८६

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पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [११३ चाक चढाइ साँच जनु कीन्हा । बाग तुरंग जानु गहि लीन्हा । गिउ मजूर तम-चूर जो हारे। उह-इ पुकारहिं साँझ सकारे॥ पुनि तेहि ठाउँ परौ तिरि रेखा। चूंट जो पौक लौक सब देखा ॥ धनि ओहि गौउ दोन्ह विधि भाऊ। दहुँ का सउ लेइ करइ मेराज ॥ दोहा। कंठ सिरौ-मुकुतााली (माला) सोहइ अभरन गोउ। को हाइ हार कँठ ( ओहि ) लागइ को तपु साधा जीउ ॥ ११३ ॥ गौउ = ग्रौवा = गला। कूज = कुञ्ज = वन। रोमी = अश्या = ऋश्य, मृग-विशेष का मादा (गोकर्णपृषतैणयॆरोहिताश्चमरो मृगाः । अमरकोश, सिंहादिवर्ग, श्लो० ५२८)। कँददू = कुंदा को (काठ के सुन्दर सुडौल गोले गोले टुकडे को कुंदा कहते हैं)। फेरि = फिरा कर = खराद पर चढा कर, और सुडौल गोल कर। काढौ= काढी गई है= बनाई गई है। हर = हरण करती है = चौराती है। पुच्छा रि= पिच्छयालि मयर का मादा = पिचार। काढि = काढ कर = निकाल कर। परेवा = पारावत कबूतर। भाउ = भाव। चाक = चक्र ( कोहार का)। साँच = साँचा, जिस से ढार ढार कर चाहे जितने गले बना डालो। बाग = घोडे के लगाम को डोर। तुरंग = तुरङ्ग घोडा। मजूर = मयूर = मोर पक्षौ। तम चूर = ताम्र-चूड = मुर्गा । तिरि = त्रि=तौन। चूंट = घाँटती है = लौलती है = पौती है। पौक = पान का लाल रस । लौक = लिकारी= रेखा। धनि = धन्य। बिधि = विधि = ब्रह्मा, वा विधान। मेराऊ= मिलाव = मिलाप | सिरी-मुकुतावाली= श्री-मुक्तावलौ = लक्ष्मी को मुक्का-माला । अभरन श्राभरण ग्रीवा का वर्णन करता है, जो कि वन (कुञ्ज ) के ऋश्या ( के सदृश) है। दृश्य हरिण-विशेष को ग्रीवा सुन्दर सु-ढार गोल होती है, दूसौ लिये कवि ने दूस को उपमा दिया है। इस ग्रोवा-वर्णन में जो जो कवि ने उपमा दिया है, वे प्रायः प्राचीन ग्रन्थों में नहीं पाये जाते, दूम से जान पडता है, कि वे सब कवि को खयं कल्पना है। (अथवा जान पडता है, कि गला नहीं है, किन्तु ) सोने के तार में मौसी लगी है। (गले की नसे मोने को तार सौ, और उस में लगा हुआ गला काँच के मौसी 1 = गहना ॥