१२-११३] सुधाकर-चन्द्रिका। . जानों) दोनों खूटों के ऊपर दोनों (उत्तर और दक्षिण के ) ध्रुव बैठाये गये हैं ॥ ज्यौतिष-शास्त्र में नाडीमण्डल के पृष्ठ-केन्द्र स्वरूप मेरु और कुमेरु के ऊपर उत्तर और दक्षिण ध्रुव प्रसिद्ध हैं । भास्कराचार्य ने भी अपने गोलाध्याय में लिखा है, कि 'सौम्यं ध्रुवं मेरुगताः खमध्ये याम्यं च दैत्या निजमस्तकोर्ध्व। सव्यापसव्यं भ्रमदृक्षचक्रं विलोकयन्ति क्षितिज-प्रसक्तम् ॥' (भास्कर के लिये गणकतरङ्गिणौ देखो) ( पद्मावती उन कानों में ) सिंहल-दौप की बनी हुई वुभौ (काँप) पहरे है। (उन को ऐमी शोभा है ) जानौँ कचपचौ से भरी सौपी हो [ चाँदी की षट् कोण काँप मोपी, उस में जडे हुए छ नग कचपची (कृत्तिका) से जान पड़ते हैं ] । (मनुष्यों को) जोह (देख ) कर (लज्जा से ) क्षण क्षण पर शिर का वस्त्र (चौर) पकडा जाता है, अर्थात् वार वार लज्जा से पद्मावती शिर ढाँकने के लिये शिर के वस्त्र को सरकाया करती है; (उस व्यापार से शिर हिलने से जो काँप, काँप उठती है, उस को ऐसी शोभा है, जानौँ) दोनों दिशा में बिजली कँप रही है ॥ देवता लोग डरते हैं, कि सिंहल में दूस (काँप-रूपौ) बिजली की एक कला, अर्थात् टुकडा, न टूट पड़े, ( नहीं तो सिंहल के सब लोग चमक और श्राघात से मर जायँगे ) ॥ ऐसे दोनों श्रवण ( ब्रह्मा ने) दिया है, अर्थात् बनाया है, कि सब नक्षत्र ( नक्षत्र ऐसे नग-गण) (उन कानों को) सेवा करती हैं। कवि को उत्प्रेक्षा है, कि मणि-कुण्डल, और काँपों के नग नहीं है, जानौँ श्रवण को पवित्र श्रुति (वेद) समझ, नक्षत्र उनको सेवा के लिये तत्पर हैं ॥ (और जिन श्रुतियाँ के) चन्द्र और सूर्य के ऐसे गहने हैं (आभूषण हैं ), वा जिन श्रुतियों के यहाँ चन्द्र और सूर्य गहने ( रेहन ) पडे हैं, उन श्रुतियों के आगे जगत् में और कौन है ?, अर्थात् श्रुतियों के सदृश जगत् में कोई नहीं है। ( यहाँ कर्ण के जो दो मणि-कुण्डल हैं, और जिन के लिये पहले कह पाये हैं, कि दुहुँ दिसि चाँद सुरुज चमकाहौँ, वे-हौ दोनों क्रम से चन्द्र और सूर्य हैं ) ॥ १ १२ ॥ चउपाई। बरनउँ गौउ पूज कइ रोसो। कंचन तार लागु जनु सौसी ॥ कँदइ फेरि जानु गिउ काढी। हरइ पुछारि ठगी जनु ठाढी ॥ जनु हिअ काढि परेवा ठाढा। तेहि त अधिक भाउ गिउ बाढा ॥
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