पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२९०

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२०० पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [११४ लगने से और भू पर न आने से, वह बडा और विना किरण का लाल, कुलाल के चक्र ऐसा देख पडता है, इसी लिये श्री-पति ने अपने सिद्धान्त-पोखर में लिखा है, कि वसुन्धरागोलनिरुद्धधामा दूरस्थितोऽयं सुखदृश्यबिम्बः । महौजवृत्तोपगतो विवखानतो महान् भात्यरुणो विरश्मिः ॥ (श्री-पति के लिये गणकतरङ्गिणो देखो)] (जान पड़ता है, कि पद्मावती ने नयन-कटाक्ष से दर्शकों को मार कर उन के) हृदय को जानौँ हाथ से निकाल लिया है, (दूमी से) तिस हथेली के माथ अँगुलियाँ रुधिर से भरौ हैं, अर्थात् हृदय काढने को बेला कलेजे में घुस जाने के कारण अंगुलियों में रुधिर भर गये हैं। इस से कवि ने यह देखलाया, कि अँगुलियों को लाली सब से बढ कर है। और (उन अँगुलियों में पद्मावती अमूल्य ) नग से जडी अँगुठी को पहने है। जगत् विना जीव का हो गया है, और जीव उसी मूठौ में है, अर्थात् पद्मावती को अनूठी अँगूठौ-सहित बंधी मूठो को देख कर, जगत् के प्राणौ-मात्र का जीव उस मूठी-हौ में खिंच कर चला जाता है, इस लिये मूठी में जीव के श्रा जाने से लोग विना जीव के हो जाते हैं। (यदि प्रकृति-रूपा पद्मावती को माया, मोहने-वाली अँगूठी हो, तो उस माया को ले कर मूठौ बाँध लेने से, अर्थात् समग्र माया को बटोर लेने से, साङ्ख्य-मत से प्राकृतिक-लय हो जाता है, इस लिये जगत् विना जीव के और जीव के प्रकृति के अन्तः-प्रविष्ट हो जाने से, कवि का कथन प्रकृति-पक्ष में भी यथार्थ हो गया) ॥ बाहु (भुज) में सुन्दर कङ्कण और टडिया हैं, जिन को लोनी गति, अर्थात् सुन्दर दूधर से उधर घमना, बाहु के (खाभाविक) डोलने में भाती है (भाउ), अर्थात् सोहतौ है ॥ (पद्मावती के स्वाभाविक बाहु डोलाने में ऐसी शोभा जान पड़ती है, कि) जानौँ (नृत्य-चातरौ से भरी) बेडिन ने गति देखाई है। (अनेक प्रकार से रङ्ग-शाला में पद-विन्यास-पूर्वक ताल लिये बजाना, ऊर्ध्वाधर-तिर्यक् भुजों का प्रक्षेपण करना, और विचित्र-रूप से चारो ओर घम कर, केवल अङ्ग-भङ्गौ से अनेक भावों का प्रगट करना गति है। इसी प्रकार बजनिये हस्त-चातुरौ से बाजे में भी ताल लिये मनोहर सुरों के सहित अनेक गति बजाते हैं)। (इस प्रकार बेडिनों के ऐसा वह पद्मावती अपने ) बाहु को डोला कर (सब का) जीव ले जाती है, अर्थात् उस गति-लौला को देख कर देखने-वाले विना जीव के ऐसे मूर्छित हो जाते हैं। - घघुरु का ।