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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२९१

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११४ - ११५] सुधाकर-चन्द्रिका। २०९ भुज की उपमा में मृणाली नहीं पूरी पडती है, ( दूसो चिये अपने को अयोग्य समझ) तिमी (अयोग्यता के) चित्त से वीण हो गई। और स्थान स्थान पर विद्ध हो गई (कण्टकाँ से), और नित्य ऊब कर (अपने को अयोग्य समझ अयोग्य जल में निमग्न होने से व्याकुल हो, ठंढी) माँस लिया करती है। कमल का मृणाल बडा दौण, अर्थात् पतरा होता है, और उस में स्थान स्थान पर काँटे चुभे रहते है, और उस का यह धर्म है, कि चाहे जल कितना-ही बढे, परन्तु उस का अग्र, जल से बाहर-हौ रहता है। इस पर कवि को उत्प्रेक्षा है, कि भुज के उपमा-योग्य न होने-ही से उस की यह दशा हुई है। भुज को उपमा मृणाल से देना यह प्राचीन रीति है। श्री-हर्ष ने भी नैषध में लिखा है, कि- बाहू प्रियाया जयतां मृणालं इन्हे जयो नाम न विस्मयोऽस्मिन् । उच्चैस्तु तच्चित्रममुख्य भग्नस्थालोक्यते निर्व्यथनं यदन्तः ॥ अजीयताऽऽवर्त्तशुभंयुनाभ्या दोभ्यों मृणलं किमु कोमलाभ्याम् । निःसूत्रमास्ते घनपङ्कमृत्सु मूर्त्तासु नाकीर्तिषु तन्निमाम् ॥' (७ स० । लो० ६८-६९) 'किं नर्मदाया मम सेयमस्या दृश्याऽभितो बाहुलता मृणाली। कुचौ किमुत्तस्थतुरन्तरोपे स्मरोमशुष्यत्तरबाल्यवारः ॥' (७स० । श्लो० ७३) ॥ ११४ ॥ G चउपाई। हिा थार कुच कंचन लाडू। कनिक कचउरि उठइ कइ चाडू ॥ कुंदन बेल साजि जनु कूदे। अंबित भरे रतन दुइ मूंदे ॥ बैधे भवर कंट केतकी। चाहहिं बेध कौन्ह कंचकौ ॥ जोबन बान लेहिँ नहिं बागा। चाहहिं हुलसि हिअइ मँह लागा ॥ अगिन-बान दुइ जानउँ साधे। जग बेधहि जउँ होहिं न बाँधे ॥ उसँग जंभौर होइ रखवारी। छुइ को सकइ राजा कइ बारी ॥ दारिउँ दाख फरे अन-चाखे। अस नारंग दहुँ का कहँ राखे ॥ 26