२२० पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [११७ - ११८ - इस लिये कवि को उपमा पूर्णपमा है ॥ (कवि कहता है, कि ) कौन उस नाग (वेणी-नाग) को देखने पाता है, अर्थात् किसी को सामर्थ्य नहीं, कि उस वेणौ-नाग के दर्शन को पावे । (उस नाग को) वही (सो) देखता है, (जिस के) माथे में भाग्य को मणि हो, अर्थात् जिम के माथे में भाग्य-मणि चमकती हो, सो उस नाग के दर्शन को पा सकता है, दूसरा नहीं। अर्थात् नाग के दर्शन से संहिता-कारों ने अशुभ फल लिखा है, परन्तु इस नाग-दर्शन से ब्रह्मानन्द-प्राप्ति है, दूस लिये जो वडा-ही भाग्यवान् हो, सो इस के दर्शन को पावे । वराह-मिहिर ने अपनी संहिता में लिखा है, कि- 'जाहकाहिश शक्रोडगोधानां कीर्तनं शुभम् । रुतं संदर्शनं नेष्टं प्रतीपं वानरर्पयोः ॥' (अ० ८५ । श्लो० ४२) नाग (अपने ) मुख में कमल को पकडे है, और तहाँ, अर्थात् उस कमल के ऊपर, खञ्जन (खिडरिच पक्षी) बैठा है। ऐसे खञ्जन को जो देखे तिसे छत्र, सिंहासन, राज्य, और धन होता है, अर्थात् देखने-वाला छत्र, सिंहासन, राज्य और धन से समन्वित राजा हो जाता है। [वेणे नाग, पद्मावती का मुख कमल, और उस पर बैठा हुआ खञ्जन का एक जोड पद्मावती का नेत्र-युगल है। सर्प के शिर और कमल पर बैठे हुए खञ्जन के दर्शन से राज्य-प्राप्ति होती है, ऐमा ज्यौतिष के संहिता-कारों ने लिखा है। वराहमिहिर ने भी अपनी संहिता में लिखा है, कि- 'अजेषु मूर्धसु च वाजिगजोरगाणां राज्यप्रदः कुशलकृच्छुचिशाहलेषु । भस्मास्थिकाष्ठतषकेशलणेषु दुःखं दृष्टः करोति खलु खञ्जनकोऽब्दमेकम् ॥' ८७ । श्लो० २०)] ॥ ११ ॥ - . चउपाई। लंक पुहुमि अस आहि न काहू। केहरि कहउँ न ओहि सरि ता-ह ॥ बसा लंक बरनइ जग झोनी। तेहि तइँ अधिक लंक वह खोनी ॥ परिहसि पिअर भए तेहि बसा । लिए डंक लोगहि कहँ डसा ॥ मानउँ नलिनि खंड दुइ भए। दुहुँ बिच लंक तार रहि गए ॥ हिअ सेा मोड चलइ वह तागा। पड़ग देत कित सहि सक लागा ॥
पृष्ठ:पदुमावति.djvu/३००
दिखावट