पृष्ठ:पदुमावति.djvu/३२१

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१२५] सुधाकर-चन्द्रिका। २३१ अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् । यः प्रयाति म मनावं याति नास्त्यत्र संशयः ।। यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥' (८ अध्या० । लो० ५-६) . .. ( मो) सिंहल का राज्य (बडा) कठिन है। राजा को तयारी से, अर्थात् सेना, धन, इत्यादि बल से, (वह राज्य ) नहीं पाई जाती है, अर्थात् कोई चाहे, कि बहुत मा धन कोर दे कर, वा बडी भारी सेना को चढाई से जीत कर, उसे लें, तो असंभव है; क्यों कि सिंहल के राजा के यहाँ असंख्य धन है, इस लिये वहाँ के मन्त्री लोग धन के लोभ में नहीं आ सकते। और उस के यहाँ अनन्त सेना भी है, जिस का जीतना असंभव है। उस (राज्य कौ) राह में वही जाता है, अर्थात् वही जा सकता है, जो ( संमार से ) उदासीन हो कर, योगी, यती, तपखी वा सन्यासी हो जाय ॥ योग जोड कर, अर्थात् योग कमा कर, उसौ योग-बल की कमाई से वह (राज्य का ) भोग पाया जाता है, (और दूसरी कोई उपाय-ही नहौँ जिस से वह मिले )। मो कोई भोग को त्याग कर, योग (क्लेश के भय से ) करता नहीं, (इसौ से आज तक वह राज्य-भोग किसी को प्राप्त नहीं हुआ है) ॥ तुम राजा हो, चाहते हो, (कि ) सुख प्राप्त हो, (सो) भोगी से योगी बन पाना कहाँ, अर्थात् जो रात दिन भोग-हौ में अपनी आधी अवस्था बिताया, उस भोगी से यह कहाँ बन आवे (बन पडे), कि योगी हो। (मो राजा, निश्चय समझो, कि विना योगी बने उस भोग का भोग लगाना असंभव है, यह शुक का अभिप्राय है ) ॥ (शुक कहता है, कि राजन्,) साध-ही से सिद्धि नहीं पाई जाती, अर्थात् केवल मन की इच्छा-ही से मनोरथ को सिद्धि नहीं होती, कहावत है, कि 'मन-मोदक नहिं भूख बुताई', अर्थात् मन के लड्डु से भूख नहीं बुझती, (सो) जब तक (योगी हो कर) तप न माधे (तब तक मनोरथ-सिद्धि नहीं होती)। (मनोरथ-सिद्धि में जो क्लेश होता है, उसे ) निश्चय से (पद् = अपि) मो (वह) गरौब जानता है, जो (उस सिद्धि के लिये अपने ) शिर का छेदन करता है, अर्थात् कर डालता ),