२५० पदुमावति । १२ । जोगी-खंड । [१३२ = श्राप गोपी-चन्द जो= यदा =अन्त। श्रम =ज्ञान। जाब- ७ सरवन = श्रवण = कान। आँखौ = अक्षि= आँख । भरहिँ = भरती है = पूरी करती है। श्रापु स्वयम्। पुनि = पुनः = फिर । साखौ = साक्षी = गवाही। सूत सूत = सूत्र सूत्र, सूत = एक परिमाण ( १ ० ६ दोहे को टौका देखो)। दोखू = दोष । कहु = कहो। होइहि = होगी। गति = प्राप्ति । मोखू = मोक्ष । जउ = यदि। गोपिचंद = एक बंगाले का राजा। साधत = साधते। जोगू = योग। उह-उ = सोऽपि वह भौ। सिसिटि = सृष्टि = संसार। जउ = जब। देख = देखा। परेवा पराये को। वा, परेवा = पारावत, यहाँ साधारण पक्षी। कजरौ-बन कन्जलि-वन, वा कदली-वन । सेवा = सेवन किया =रहने लगा ॥ अंत एतादृश ऐसा। होदूहदू = होगा। गुरू = गुरु । उपदेस = उपदेश = शिक्षा जाऊँगा। प्रदेस = आदेश कथन =कहना ॥ ( राजा ने कहा, कि) माता मुझे यह लोभ न सुना, वा मुझे दूस माया का लोभ म सुना (जो, कि पिछले दोहे में विस्तार-पूर्वक वर्णित है)। (क्योंकि यह संसार का सुख और शरीर क्षण-भङ्गुर हैं, सो) किस का सुख और किस को शरीर है, अर्थात् न किसी का सुख और न किसी को शरीर है, सब नाशवान् हैं; उस को भूल है जो अपना समझता है ॥ जब (निश्चय है, कि) तनु अन्त में ( एक दिन ) क्षार हो जायगी, (तो) कौन (ऐसा मूर्ख है, जो इस ) मट्टी का पालन कर, बोझे से मरे, अर्थात् पारौर को लालन पालन से मोटौ कर, केवल बोझा बढाना है, और कुछ फल-सिद्धि नहीं ॥ (और जो तँ ने चन्दन-चोवे का पिछले दोहे में वर्णन किया, मो मैं ) दूस चन्दन-चोवे में क्या भूलूँ, अर्थात् नहीं भूल सकता, (क्योंकि ) जहाँ, अर्थात् जिस चन्दन-चोवे के लेपन में, अङ्ग के रोएँ वैरौ हैं, अर्थात् लेपन में भी सुख नहीं है, जहाँ असावधानी हुई, कि मर्दन से रोएँ टूटे, फिर बरतोर कौ पौडा से लेपन का सुख मूखा, और हाय हाय पडौ। यहाँ रोवाँ में अर्द्ध-चन्द्र होने से अनुप्रास का भङ्ग 'नानुखारविस! चित्रभङ्गाय' (वाग्भटविरचित काव्यानुशासन १ अध्याय) दूस वचन से नहीं होता। अनुप्रास इत्यादि सब चित्र काव्य-हौ में परिगणित हैं जैसा, कि साहित्यदर्पण के चतुर्थपरिच्छेद में लिखा है- प्रधानगुणभावाभ्यां व्यङ्ग्यस्यैवं व्यवस्थितेः । उभे काव्ये ततोऽन्यद्यत्तचित्रमभिधीयते ।। (हे माता), हाथ, पैर, कान और आँख, ये सब इन्द्रियाँ फिर आप साक्षी भरती ।
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