पृष्ठ:पदुमावति.djvu/३६३

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१३४] सुधाकर-चन्द्रिका। २५७ -

जड

इति सिद्धान्तकौमुद्याम् ) धातु दुष्ट होने के अर्थ में है, इस लिये चहति से चहद का बनना अर्थासङ्गति होता है। परन्तु प्राकृत में जाने से धातुओं का अर्थ बदल भी जाता है, इस लिये दहद् (दहति), सहदू (सहते ), वहदू (वहति), उजहदू (उज्जहाति) के ऐसा चहति से चहदू का होना विशेषतः संभव है। बहुतों के मत से दूस का मूल दूच्छति और बहुतों के मत से पालौ चघति, जिस का गमन अर्थ है, है। महरौ = मेहर ( कृपा) करने-वाली = स्त्री। राजू = राज्य । जूड जूडा ठंढा। कुरुकुटा = कर्करः खर कतवार मिला। पदू = अपि = निश्चय । भखु = भक्ष्य = भक्षण = भोजन । चहा = चहद का भूत-काल । तात = तप्त = गर्म । भात = भक्त ॥ मानदू = मन्यते = मानता है। तजी = तजदू (त्यजति ) का स्त्रीलिङ्ग में भूत-काल । सबाई = सर्वापि = सभौ। भौर भौरुः =भय से, अर्थात् राजा के विना हम-लोगों को क्या गति होगी, इस भय से डरी हुई रानियाँ । छाडि = श्राछुट्य = छोड कर। रोतः रोती हुई। धीर = धैर्य ।। (रानियों के विनय करने पर राजा ने कहा, कि) तुम लोग स्त्री हो, तुमारे लोगों को कम बुद्धि होती है, (और) वह (सो) मूर्ख है जो घर में (बैठ) नारी से सलाह करता है । (तुम लोग मौता-राम का जो दृष्टान्त दिया उस का वृत्तान्त सुनो) जो राम ने सौता को संग लिया, (तो उस सौता को) रावण ने हर लिया ( सो बे-चारे राम उसी के ढूँढने में समय को बिता दिया; योगी बनने पर भी) कौन सिद्धि को पाया, अर्थात् विना सिद्ध हुए जैसे गये थे, वैसे-ही घर लौट आये; यदि मौता को न ले गये होते, तो अवश्य निश्चिन्त हो पर-ब्रह्म के ध्यान से सिद्धि को प्राप्त करते ॥ (मो) यह संसार वैसा ही है जैसे स्वप्न का मेला, अर्थात् जैसे कोई सपने में देखें, कि किसौ मेले में हैं, जहाँ लाखौँ मनुष्य एकट्टे हैं, फिर आँख खुलने पर वह मेला झूठा ठहर जाता है, और वह मनुष्य अकेला-हौ खाट पर पडा, अनेक बाट पर मन दौडाया करता है। उसी प्रकार इस संसार में जो अनेक भाई, बन्धु, धन, दारा देख पड़ते हैं, वे सब अन्त में कोई भी अपने नहीं हैं, अर्थात् यदि वे सब अपने होते तो अन्त में प्राण कूटने पर अवश्य अपने साथ चलते । (सो रानौ लोग, निश्चय समझो, कि अन्त में ) कोई किसी का नहौं, (सब कोई जैसे अकेला पाता है, उमौ प्रकार अकेला-हौ हाथ पसारे उठ जाता है, एक तिनका भी कोई अपने साथ नहीं ले जा सकता) ॥ (तुम-लोग ) अयानी हो, वा हे अयानी, (तुम लोगों ने ) राजा भर्ट हरि को नहीं सुना है, जिस के घर में मोरह मै रानियाँ थौं ॥ (और वे सब - 33