पृष्ठ:पदुमावति.djvu/३६६

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पदुमावति । १२ । जोगी-खंड । [१३४ - १३५ मृगी ने कहा, कि राजा दूसे मत मारो, दूस के मारने से हम लोग राँड हो जायेंगी। राजा ने मृगौ की बात अनसुनी कर, उस कारे मृग को मार डाला। इस पर मृगी ने शाप दिया, कि इस को मार कर, श्राप ने जैसा मुझे अनाथ किया, इसी प्रकार तीन दिन के बीच में श्राप के योगी होने से श्राप को सब रानियाँ अनाथ हो जायँगी। निदान राजा उस कारे मृग को मार कर, घर ले चला। राह में गुरु-गोरख-नाथ को देख कर, बडे श्रादर से दण्डवत् किया। इस पर बडे क्रोध से गोरख ने ललकारा, कि ते ने दूम काले मृग को मार कर, सत्तर मृगियों को राँड बनाया । सो दूं महा पापी है, तेरा दण्डवत् मैं नहीं स्वीकार करता। इस पर भर्तृहरि ने व्यङ्ग से कहा, कि आप तो बडे सिद्ध हो, दूस मरे मृग को जिलाय क्यों नहीं देते, जिस से मेरा पाप कट जाय। गोरख ने भर्तहरि को राज-मद में भूला समझ, अपना परिचय देने के लिये, झोली से एक चुटुको भभूत निकाल, मरे मृग के ऊपर फेंका। फेंकते-हौ वह मृग मजीव हो, चौकडी भरने लगा। इस आश्चर्य को देख, राजा गोरख के पैरों पर पड़ा, और उन से दीक्षा ले, घर बार छोड, योगी हो गया। राजा योगी हो कर, जिस समय अपनी रानौ श्याम-देवी को माता कह कर, अन-भिक्षा माँगने लगा है, और रानी से विनय करने लगा है, कि हे रानौ, तुम मुझे पुत्र कह कर, अन्न-भिक्षा दे दो, बाजी योगियों के मुख से उस समय को मनोहर गीत बहुत-ही प्यारो मालूम होती हैं। सुनने से रोएँ खडे हो जाते हैं, रुलाई प्राने लगती है ॥ ( राजा रानियों से कहता है, कि) योगी को भोग से क्या काम। (योगी) स्त्री चाहता है, न राज्य को चाहता है ॥ (किन्तु) निश्चय कर के ठंढा (और रूखा सूखा) खर कतवार मिला भोजन चाहता है। योगी को गर्म भात से क्या काम ।। राजा (किसी का) कहना नहीं मानता है, सभी (रोती और डरती) रानियों को तज दिया । सब रोती हुई (रानियाँ) को छोड कर चला, (ऐसा निष्ठुर हो गया, कि) फिर कर, (रानियों को) धीरज भी नहीं देता है, (कि घबडावो मत, कुछ दिन बीते सिंहल की सैर कर, मैं फिर आप लोगों से श्रा कर, मिलूँगा और सुख-भोग करूँगा)॥ १३४ ॥ चउपाई। रोअइ मता न बहुरड बारा। रतन चला जग भा अँधियारा ॥ बार मोर बाउर-रत्ता। सो लेइ चला सुत्रा परबत्ता ॥