पृष्ठ:पदुमावति.djvu/३७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१३६ - १३७] सुधाकर-चन्द्रिका। २६५ सब गरुए रंग का वेष कर, अर्थात् गुदरी इत्यादि सब पहिरावा गेरुश्रा से रँगा कर, योगियों की (मोरह हजार कुरों को) सेना चली। (उस घडी ऐमौ शोभा है) जानौँ बौस कोस तक चारो ओर पलाश फूला हुआ है। फूल लगने को बेरा मैं पलाश के पत्ते सब झड जाते हैं, बहुत दिनों तक पलाश-वन में चारो ओर को ललाई-ही अनल-ज्वाला के ऐसी दिखाई देती है; दूसी पर विहारी ने अपनी सत- सई में उत्प्रेचा किया है, कि 'फिरि घर नूतन पथिक पलास-बन चले चकित चित भागि। फूल्यौ देखि समुह समुझि दवागि ॥' (लाल-चन्द्रिका, दोहा ५६७) पत्तों के झड जाने पर हसू जो फूलता है, उस पर किसी कवि ने अन्योक्ति से पलाश से पत्ते का उलाहना देना कहा है, कि 'सौत सहे बरषा महे श्रातप सहे पचास । हम बिछुडे तुम फूलिहो ऐसे मौत पलास' ॥ इस पर पलाशान्योक्ति यह है, कि फूले फूले कहत हैं भूले हैं सब लोग। मौत तुमारे सोग से हम लौन्हे हैं जोग ॥' 6 चउपाई। आगइ सगुन सगुनिअइ ताका। दहिउ माँछ रूपइ कर टाका ॥ भरे कलस तरुनी चलि आई। दहिउ लेहु ग्वालिनि गोहराई ॥ मालिनि आइ मउर लेइ गाँथइ। खंजन बठु नाग के माथइ ॥ दहिनइ मिरिग आइ गा धाई। प्रतीहार बोला खर बाई ॥ बिरिख सवरिया दाहिन बोला। बाई दिसि गोदर तहँ डोला ॥ बाएँ अकासी धोबइनि आई। लोवा दरस आइ देखराई । बाएँ कुररी दहिनइ कूचा। पहुँचइ भुगुति जइस मन रूचा ॥ 34