१४२] सुधाकर-चन्द्रिका। २८७ जिस राजा को श्राज्ञा से प्रोफेसर म्याक्समूलर ने दूसरौ वार ऋग्वेद को छपवाया है उस का नाम पशुपति-आनन्द-गजपति-राज था। कालिदास भी कलिङ्ग राजा को प्रशंसा में लिखते हैं, कि प्रतिजग्राह कालिङ्गस्तमस्त्रैर्गजसाधनः । पचच्छेदोद्यतं शक्रं शिलावर्षांव पर्वतः ।। (रघुवंश, ४ सर्ग, ४० श्लो. ) असौ महेन्द्राद्रिसमानसारः पतिर्महेन्द्रस्य महोदधेश्च । यस्य क्षरमैन्यगजच्छलेन यात्रासु यातीव पुरो महेन्द्रः ॥ (रघुवंशः ६ स० ५४ स्लो ० ) जिस प्रकार कलिङ्ग-राजा बहुत हाथी के रहने से गज-पति कहाता है, उमौ प्रकार बहुत घोडाँ के रहने से केकय-राजा को (जिस की पुत्री कैकेयी, अयोध्या के राजा दशरथ से व्याही थी) अश्व-पति कहते हैं। वाल्मीकि ने लिखा है, कि स तत्र न्यवसङ्घात्रा मह सत्कारमत्कृतः । मातुले नाश्वपतिना पुत्त्रस्नेहेन लालितः ॥ (वाल्मी० रामा०, अयो. का०, १स० २ श्लो. ) चाहहि = चाहदू (चदति, चहति वा इच्छति) का बहु-वचन। खेला = क्रौडा = सैर। = करुणा = कृपा = दया। कौजित्र कौजिये। पहुनाई = प्राघुणीयः = पाहुन के योम्य मत्कार = पहुनई। मुरारिनाटक में लिखा है, कि पाहुणहत्येण सप्पमाअणं खु एदं (प्राघुणहस्तेन सर्पमारणं खल्वेतत् )। आसु = प्राज्ञा। दौजिन = दौजिये। उतरु = उत्तर। भाउ=भाव अभिप्राय। निनारा = निराला = निरालय। नेवतहु = नवत (निमन्त्रयति) का लोट् लकार में मध्यम-पुरुष का एक-वचन। भाऊ = भाव। निरभउ निर्भाव =विना भाव का। लाउ = लगावो (लगयत)। नमाज = नमावो= ( नाशय)। दूह-दू = यहो। जउ = यदि = जो। बोहित = बडी नाव = जहाज। तुम्छ त? तुम से। सिधावउँ= सिधाइ (मेधति) का लोट् लकार में उत्तम-पुरुष का एक-वचन = जाऊं ॥ निजु = निज= खयम् = श्राप । बार = द्वार = तिम बाट मैं चलते एक मास लगा। (लोग) समुद्र के घाट (पर) जा कर उतरे ॥ (उस घाट का अधिपति कलिङ्गाधिराज) गज-पति, यह सुन कर, कि माया =उवढी ॥
पृष्ठ:पदुमावति.djvu/३९३
दिखावट