३०० पदुमावति । १३ । राजा-गजपति-संबाद-खंड । [ १४६ - १४० ले कर, वहाँ पहुंचा, और बौरबर वह मत्स्य भेंट में दिया, जिस के बदले बौरबर से बहुत कुछ पाया। बौरबर ने श्राज्ञा दिया, कि इस मत्स्य को पकावो, और जो गरीब, खाने लायक हाँ, उन्हें और व्यञ्जनों के साथ दूसे भी खिलावो। पकाने के लिये लोगों ने मत्स्य को फाडा तो उस के पेट में से वही बादशाहो मोहर-वाली मुद्रिका निकलौ, जिसे ले कर, बडे श्रानन्द से बौरबर सन्ध्या को दर्बार में पहुंचे, और बादशाह के हाथ में उस मुदरौ को दी। बादशाह ने मुद्रिका को देख कर, बडे श्राश्चर्य में हो, बौरवर से कहा, कि इसे तो मैं ने स्वयं यमुना में फेंक दिया था तुम्हें कैसे मिली ? । बौरबर ने कहा, कि पृथ्वी -नाथ, दान के प्रभाव से यह मुझे मत्य के पेट में से मिलौ; इस पर बादशाह को विश्वास हुआ, कि सत्य है, बडी बडौ विपत्ति दान से हट जाती हैं ॥ दसौ बुद्धि से राजा रत्न-सेन ने भी सर्वस्व-दान दिया। आगे की चौपाई में कवि भी दान-महिमा-वर्णन के लिये उद्यत हुआ ॥ १४ ६ ॥ चउपाई। धनि जौन अउ ता कर हौआ। ऊँच जगत मह जा कर दौआ ॥ दिवा सो सब जप तप उपराहौँ । दिसा बराबर जग किछु नाहौँ । एक दिना त. दस-गुन लाहा। दिशा देखि सब जग मुख चाहा ॥ दिया करइ आगइ उजिारा। जहाँ न दिया तहाँ अधिारा । दिशा मँदिर निसि करइ अँजोरा। दिवा नाहिँ घर मूसहिँ चोरा । हातिम करन दिया जो सौखा। दिअा रहा धरमिन्ह मँह लोखा ॥ दिवा सो काज दुहूँ जग आवा। इहाँ जो दिवा श्रोही जग पावा ॥ दोहा। निरमर पंथ कौन्रु तिन्छ जिन्ह रे दिना किछु हाथ । किछु न कोइ लेइ जाइहि दिया जाइ पइ साथ ॥१४७॥ धनि =धन्य । जौन = जीवन । होश्रा = हृदय । ऊँच = उच्च जगत् = संसार । दौत्रा = दान = दत्त, वा दोश्रा = दीपक =दीप = दीया = चिराग । उपराहौँ = उपरि हि = ऊपर। जग = जगत् = संसार। किछु = किञ्चित् = कुछ। त+ तें = से । दस = दश । गुन = गुण । दस-गुन = दश-गुण ऊँचा। जगत = दस-गुना। लाहा = लाभ =
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