सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:पदुमावति.djvu/४०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३२ पदुमावति । १३ । राजा-गजपति-संबाद-खंड । [१४७ सोने को हो गई। जब युधिष्ठिर ने राजसूय किया, और बहुत ब्राह्मणों को भोजन कराया, उस समय उस नेउरे ने यह सोच, कि उस यज्ञ में ब्राह्मणों को जूठौ पत्तलों पर लोटने से मेरौ बाकी प्राधौ देह अवश्य सोने को हो जायगौ, वहाँ श्रा कर, घूर पर पडौ जूठी पत्तलों के ऊपर लोटना प्रारम्भ किया। युधिष्ठिर के साथ कोठे पर बैठे कृष्ण उस नेउरे के, वार वार लोट कर, शरीर के निरेखने पर खिल खिला कर हँस उठे। युधिष्ठिर कुछ श्रामर्ष से हंसो का कारण पूछने लगे। युधिष्ठिर के हठ पकडने पर कृष्ण ने उस नेउरे को देखाया और कहा, कि देखो राजा रन्तिदेव के ब्राह्मण-भोजन के उच्छिष्ट में लोटने से दूस को आधौ देह सोने को हो गई है, अवशिष्ट देह को भी सोना बनाने के लिये तुमारे यज्ञ के ब्राह्मण-भोजन के उच्छिष्ट में लोट रहा है, और वार वार अपनी देह को निरख रहा है, कि सोने को हुई, कि नहीं, परन्तु वह देह ज्यों को त्यों बनी है, सोने को नहीं होती है। दूस पर युधिष्ठिर ने लज्जित हो कर, कृष्ण से पूंछा, कि क्या मेरी यज्ञ निर्विघ्न पूरी नहीं हुई। कृष्ण ने कहा, कि युधिष्ठिर, तमारौ यज्ञ अवश्य निर्विघ्न पूरी हुई, परन्तु राजा रन्तिदेव के यज्ञ को बराबरी नहीं कर सकती। राजा रन्तिदेव ने अपना पेट काट कर, ब्राह्मण के मुख में इत किया, सो उन कौ यज्ञ सर्वोत्तमोत्तम हुई। सच है दान के बराबर जगत् में कुछ नहीं है, तहाँ भी ऐसा दान, जिस से कि प्राण पर श्रा बने ॥ एक देने से दस-गुना लाभ होता है, अर्थात् जगत् में सब प्राणियों को यही इच्छा रहती है, कि कुछ नुकसान हो जाय, परन्तु प्रतिष्ठा लाभ हो, सो आदर-पूर्वक एक से प्रतिष्ठा पाने के लिये तो उस को दान दिया, और उस ने दस जगह दानौ को प्रशंसा किया, जिस से उस दानी को दश-गुणित प्रतिष्ठा हो गई। जैसे एक दौये से दस-गुना लाभ होता है, अर्थात् दसो दिशा को वस्तु प्रकाश से मिल जाती है। दिया ( दान ) को देख कर, (दानी के औदार्य पर) सब जगत् ( उस दानो के) मुख को चाहता है, अर्थात् सब कोई चाहता है, कि ऐसे पुण्यात्मा के मुख का दर्शन हो। जैसे दौये को देख कर जग में सब कोई उस दीये के मुख को चाहता है, अर्थात् दोप-शिखा को लक्ष्मी-रूप समझ, सब कोई प्रणाम करने के लिये उस दौये के मुख का दर्शन चाहता है॥ दिया (दान) आगे उंजेला करता है, अर्थात् परलोक-मार्ग को देखाता है, जैसे दीया आगे (राह में ) उजेला करता है। जहाँ दिया (दान) नहीं है, तहाँ अन्धकार है, -