२४७] सुधाकर-चन्द्रिका। . अर्थात् उस के लिये परलोक-मार्ग अन्धकार-मय है, जैसे जहाँ दिया (दोप) नहीं है तहाँ अन्धकार रहता है ॥ दिया (दान) रात को घर में उँजेला करता है, अर्थात् रात को घर में दानी के सो जाने पर भी दान-प्रताप ऐसा प्रकाशित रहता है, कि उस के श्रातङ्क से चोर, चाई, कोई भी, उस के पास नहीं पहुँच सकता; वह दान-प्रताप सदा उजेला रखता है, जैसे दीया (दीप) रात को घर में उँजेला करता है। (जहाँ ) दिया (दान) नहीं है ( उस ) घर को चोर मूसते हैं, अर्थात् न देने से कृपण के सञ्चित धन का यही परिणाम है, कि उसे दूसरा ले लेता है। भर्तृहरि ने भी लिखा है, कि- 'दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुते तस्य हतीया गतिर्भवति ॥' (भर्तृहरि-नौतिशतक) । (भोग भी एक प्रकार का दान-ही है, किन्तु कुपात्र में देने से इस दान से कोई फल नहीं) जैसे दीया न रहने से घर को चोर मूम लेते हैं ॥ हातिम और कर्ण ने जो दिया (दान) को मौखा, अर्थात् दान देने का जो अभ्यास किया; (दूमौ लिये अाज तक उन दोनों का) दिये (दान)-हौ से धर्मियों में गणना रही है, अर्थात् दान-कौर्ति-ही से आज तक उन के नाम धर्मि-गणना में वर्तमान हैं, वा, हातिम और कर्ण के, दिया (दीप, प्रताप) को जो शिखा (प्रज्वलित हुई है, उसी कारण वह ) दिया (प्रताप) धर्मियों के बीच लिखा रहा है, अर्थात् उन के प्रताप का विशेष वर्णन धर्मियों के बीच आज तक इतिहास में लिखा हुआ है ॥ दिया (दान) जो है सो दोनों जगत्, अर्थात् इस लोक और परलोक दोनों, में काम आता है, जैसे जग में दिया (दीप = दीया ) जो है मो दोनों, अर्थात् घर के भीतर बाहर दोनों, काम में आता है। यहाँ, अर्थात् इस लोक में, जो कुछ दिया हुआ है (वही) दूसरे जगत् में, अर्थात् पर-लोक में, पाया जाता है, अर्थात् अन्त समय कुछ भी नहीं काम पाता और न कोई संग चले, एक दान-पुण्य-रूप धर्म-ही साथ देता है, और वही साथी हो कर, ईश्वर के यहाँ महायक होता है। शास्त्र में भी लिखा है, कि 'धर्म एकः सहायः' जैसे यहाँ जिस का दिया (धर्म-दीप-प्रकाश ) है वही परलोक में भौ (प्रकाश के लिये उस धर्मों को) मिलता है। ( कवि कहता है, कि) रे (मन, वा मित्र ) जिस ने (अपने ) हाथ से कुछ दिया, अर्थात् दान-पुण्य किया, (निश्चय समझो, कि) तिस ने (पर-लोक यात्रा में अपने लिये) निर्मल राह किया है, अर्थात् वही दान-दौप को उज्ज्वल-शिखा उस के अन्त
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