पृष्ठ:पदुमावति.djvu/४१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४७-१४८] सुधाकर-चन्द्रिका। ३०७ ..

हुए हैं। कर्ण ने कहा, कि यदि तुम राजी हो कर देने को कहो और कार्य में भाँजो न पडो, तो मैं कहूँ। पत्नी ने कहा, कि प्राण-नाथ, मेरे लिये संमार में ऐमी सार वस्तु-ही नहीं जो आप को आज्ञा से बाहर हो; तन, मन, धन, परिवार-जन, सब श्राप का है; निःसंशय त्राज्ञा हो दासी सर्व प्रकार से आज्ञा पालन करेगी। पत्नी के दूम वचन पर कर्ण ने योगी के वृत्तान्त को सुना कर, कहा, कि मैं यह सब करने का वचन उसे दे आया हूँ, अब, प्राण-प्रिये, तुमारो-हौ देरौ है; इस पर पति श्राज्ञा को- 'गुरुर निर्दिजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः । पतिरेको गुरुः स्त्रीणां सर्वत्राभ्यागतो गुरुः ॥' दूस मनु-वाक्य से सब से भारी समझ, वह भी पति के साथ सब काम करने को तयार हुई। निदान योगी के नियमानुसार दोनों ने वैसा-हो कर देखाया। जब पुत्र-मांस परोस कर कर्ण योगी को जवाँने लगा, और उस की पत्नी बनियाँ डोलाने लगी, तब अत्यन्त प्रसन्न हो कर, धन्य धन्य कहते, महादेव जौ प्रगट हो कर, उस के पुत्र विकर्ण को जिला दिया, और बहुत कुछ वर-प्रदान देते दम्पतियाँ को सत्यता को सराहते अपनी कैलासपुरौ को पधारे। जैसे श्रवण, गोपीचन्द, भर्तृहरि के चरित्रों को लोग गाया करते हैं; तिमी प्रकार बहुत से लोग दूस कर्ण-कहानी को भी अनेक मनोहर गौतों में गाया करते हैं ॥ १४७ ॥ 3B चउपाई। सत न डोल देखा गज-पतो। राजा दत्त सत्त दुहुँ सती ॥ आपुन नाहिँ कया पइ कंथा। जीउ दोन्ह अगुमन तेहि पंथा निहचइ चला भरम डर खोई। साहस जहाँ सिद्ध तहँ होई ॥ निहचइ चला छाडि कइ राजू। बोहित दोन्ह दोन्ह सब साजू ॥ चढा बेगि अउ बोहित पेले। धनि वेइ पुरुख पेम-पँथ खेले ॥ पेम-पंथ जउ पहुँचइ पारा। बहुरि न आइ मिलइ तेहि छारा ॥ तिन्ह पावा अतिम कबिलास । जहाँ न मोचु सदा सुख बास्त्र ॥