३१२ पदुमावति । १४ । बोहित-खंड । [१४६ - १५० (पर्वताकार) मत्स्य समुद्र में हैं ॥ (सो) अरे (भाई) तिसी राह में (जिस में ऐसे ऐसे भयङ्कर मत्स्य हैं) हम लोग चलना (गमनम् = गवना ) चाहते हैं, ( सो सब कोई ) सावधान हो (और निश्चय रकहो, कि अब ) लौट कर नहीं आना होगा, अर्थात् सब कोई दूसो राह में गल पच जायँगे, लौट कर घर पहुँचने की कोई श्राशा नहीं ॥ (कुर लोग कहते हैं, कि) राजा, आप हमारे लोगों के गुरु हैं, (इस लिये) आप खामी (नाथ) हैं, (और) हम लोग चेला हैं, (सो हम लोग इस भयङ्कर मार्ग से नहीं डरते, अर्थात् हमारे लोगों का यह साश्चर्य-वचन सुन, आप यह मन में न समझें, कि ये लोग आगे चलने से हिचकते हैं। क्योंकि शास्त्र की मर्यादा है, कि) जहाँ गुरु पैर रकबे, वहाँ चेला माथ रकबे, अर्थात् जहाँ गुरु पैर से चलने की इच्छा करे, वहाँ चेले को शिर के बल चलना चाहिए। इन सब बातों से कुरों ने राजा से यह सङ्केत किया, कि आप स्वयं विचार कर लें, कि ऐसे भयङ्कर मार्ग में चलना चाहिए, कि नहीं, और हम लोग तो श्राप के अनुगामी होने को मनमा वचसा कर्मणा तयार हैं ॥ १४८ ॥ चउपाई। केवट से सो सुनत गर्दैजा । समुद न जानु कुआँ कर मजा ॥ यह तउ चाल्ह न लागइ कोह। का कहिहहु जब देखिहहु रोह ॥ अब-हौँ तइँ तुम्ह देखे नाहौँ। जेहि मुख अइसे सहस समाहौँ ॥ राज-पंखि तेहि पर मैडराही। सहस कोस जेहि कइ परिछाहौँ । जेइ वेइ मच्छ ठोर गहि लेहौं। सावक-मुख चारा लेइ देहौँ । गरजइ गगन पंखि जउ बोलहिँ। डोलहिँ समुद डयन जउ डोलहिँ॥ तहाँ न चाँद न सुरुज असूझा। चढइ सो जो अस अगुमन बुझा ॥ दोहा। दस मँह एक जाइ कोइ करम धरम सत नेम । बोहित पार होइहि जउ तउ कूसल अउ खेम ॥ १५० ॥ केवट = कैवर्त्त =मलाह । हँसे = हँसद् (हसति) का भूत-काल में बह-वचन । सुनत = सुनते = श्टण्वन्तः । गजा = गोजन = गौगा = बतकही। न = नु = वितर्क।
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