३३२ पदुमावति । १५ । सात-समुदर-खंड । [ १५६ - १५७ रहा है, (जिस के कारण राजा के नयनों से) रक्त की आँस गिर गिर पडती हैं ( ऐसी व्याकुल-अवस्था में राजा की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गई है) ॥ (मुहम्मद कवि कहते हैं, कि यद्यपि राजा के हृदय में प्रेम-सुरा भरौ है, तथापि कर्णद्वारा उदर में जाने से यह अजीर्ण हो कर राजा को प्राकुल किये है। इस लिये 'विषस्य विषमौषधम्' दूस सिद्धान्त से यदि और कहीं कुछ प्रेम-सुरा मिले, जिसे मुख-द्वारा राजा पोवे, तो प्रेम-सुरा का खादु पावे और अजीर्ण भौ नसावे । परन्तु ) प्रेम का मद ( सुरा) जो है, सो (तो) तहाँ (पद्मावती वा पर-ब्रह्म) दीप (सिंहल-दीप, वा परब्रह्म-र ) में रख गया है, अर्थात् पद्मावती के दौप में वह स्नेह (प्रेम) स्नेह (तेल) के सदृश बरता हुआ रकला है। (सो जब तक उस दीप में) पतंग हो कर शिर न दे, तब तक वह (स्नेह = प्रेम) चकवा न जाय, अर्थात् जैसे दीप की शिखा में फतंगा जल जाता है। उसी तरह उस पद्मावती के दौप में जब तक जल न जाय, तब तक उस प्रेम-सुरा के खादु को नहीं पा सकता ॥ १५६ ॥ चउपाई। पुनि किलकिला समुद मँह आए । गा धीरज देखत डरु खाए॥ भा किलकिल अस उठइ हलोरा। जनु अकास टूटइ चहुँ ओरा ॥ उडइ लहरि परबत का नाई। होइ फिरइ जोजन लख ताई ॥ धरती लेत सरग लहि बाढा। सकल समुद जानउँ भा ठाढा ॥ नौर होइ तर ऊपर सोई। महा-अरंभ समुद जस होई॥ फिरत समुद जोजन लख ताका। जइसइ फिरइ कोम्हार क चाका ॥ मा परलउ निराना जउ मरइ सो ता कह परलउ तउ- दोहा। गइ अउसान सबहिं कई देखि समुद कइ बाढि। निअर होत जनु लौलइ रहा नयन अस काढि ॥ १५७ ॥ किलकिला = किल किल ऐसा जिस के शब्द में अनुकरण हो। गा= अगात् = गया। धीरज = धैर्य । डरु = डर = दर = भय । खाए = खादू ( खादति) का भूत-काल में बहु-वचन । भा = अभूत् (उत्तिष्ठते ) उठता है। हलोर -हौँ। = भया= त्रा। उठदू
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