३४६ पदुमावति । १६ । सिंघल-दीघ-भाउ-खंड । [१६२ अथ सिंघल-दीप-भाउ-खंड ॥ १६ ॥ चउपाई। न जनउँ पूँछा राजइ कहु गुरु सुत्रा। आजु कहा दह उभा ॥ पवन बास सौतल लेइ आवा। काया दहत चंदन जनु लावा ॥ कब-हुँ न अइस जुडान सरौरू। परा अगिनि मँह मलय-समौरू ॥ निकसत आउ किरिन रबि रेखा। तिमिर गए निरमर जग देखा ॥ उठइ मेघ अस जानउँ आगइ। चमकइ बौजु गगन पर लागइ ॥ तेहि जपर जनु ससि परगासा। अउ सो चाँद कचपची गरासा ॥ अउरु नखत चहुँ दिसि उँजिारी। ठावहिँ ठाव दीप अस बारौ ॥ दोहा। अउरु दखिन दिसि निअर-हि कंचन मेरु देखाउ । जनु बसंत रितु आवइ तस बसंत जग आउ ॥ १६२॥ पूँछा = पूँछ। (पृच्छति ) का भूत-काल में एक-वचन । राजदू
राजा ने। कई
कहद् (कथयति) का लोट में मध्यम-पुरुष का एक-वचन । सुआ = एक सुग्गा। जनउँ= जानउँ= जानद (जानाति) का उत्तम-पुरुष में एक-वचन । आजु = आज = अद्य। दह दह = दहा = दशा = भाग्य । उपा = उपद (उदयति) का भूत-काल में एक- वचन। बाम = वाम = वासना = सुगन्ध । सौतल = शीतल = ठंढी, वा, ठंढा । काया पारौर। दह -दहन् = दहती भस्म होती। चंदन = चन्दन । काय लावा-