पृष्ठ:पदुमावति.djvu/४५८

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३५२ पदुमावति । १६ । सिंघल-दीप-भाउ-खंड । 1 [१६३ । प्राणस्य जिसे योगी ईडा नाडौ कहते हैं, उस के पास पास मस्तिष्क से मिले छोटे छोटे नस-तन्तु, तारा-गण और कुमुद । दक्षिण-वर, जो नासिका के दहने पूरे से निकलता है, जिसे योगी पिङ्गला नाडी कहते हैं, वह रवि। और उस के पास पास के मस्तिष्क से मिले छोटे छोटे नम-तन्तु विद्युत् सदृश उसे देखाई पड़ते हैं। फिर योगी यदि दून के दर्शन से घबडा न नावे ; गुरूपदेश से भागे प्राण को चढाता जावे, तो आगे सुषुम्ना नाडी में प्राण जायगा। फिर वहाँ से उसे सुन्दर सुखद राज-मार्ग मिलता है, जो कि पर-ब्रह्म-स्थान तक प्राण को पऊँचा कर, पर-ब्रह्म में मिला देता है, और फिर विष्णु-ग्रन्थि, रुद्र-ग्रन्थि, और ब्रह्मा-ग्रन्थि भी खुल जाती हैं । गुप्ता गुरुप्रसादेन यदा जागर्ति कुण्डली। तदा सर्वाणि पदानि भिद्यन्ते ग्रन्थयोऽपि च ॥ शून्यपदवी तदा राजपथायते। तदा चिन्तं निरालम्बं तदा कालस्य वञ्चनम् ॥ सुषुम्बा शून्यपदवी ब्रह्मारनं महापथः । शमशानं शाम्भवी मध्यमार्गश्चेत्येकवाचकाः ॥ तस्मात् सर्वप्रयत्नेन प्रबोधयितुमौश्वरीम् । ब्रह्मदारमुखे सुप्तां मुद्राभ्यासं समाचरेत् ॥ महामुद्रा महाबन्धो महावेधच खेचरी। ड्ड्यानं मूलबन्धश्च बन्धो जालन्धराभिधः ॥ करणी विपरीताख्या वज्रोली शक्तिचालनम् । इदं हि मुद्रादशकं जरामरणनाशनम् ॥ (हठयोगप्रदीपिका, ढतीयोपदेपा, लो० २-७)। दूस प्रकार पर-ब्रह्म-पक्ष, और पद्मावती-पक्ष, दोनों में सब कवि का कहा हुआ लग जाता है। और जो पिछले दोहे में कहा कि, उस स्थान में जानाँ वसन्त ऋतु श्राई है, उस को लौला भी इस दोहे में यथावत् वर्णित हो गई। जब पर-ब्रह्म वा पद्मावती की प्राप्ति हो गई, तब वहाँ जरा-मरण को निवृत्ति हो जाने से सदा एक आनन्द-रस रहने से सर्वदा वसन्त-ऋतु का रहना समुचित है। विक्रमादित्या, जिस का संवत् आज तक भारतवर्ष में प्रचलित है, उज्जयिनी वा धारा का राजा था, जिस के दान, पराक्रम, बुद्धि इत्यादि को महिमा सिंहासन-बत्तौसी -