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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/४५९

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सुधाकर-चन्द्रिका। ३५३ - और बैताल-पचीसी में विशेष रूप से वर्णित है। ज्यौतिष-ज्योतिर्विदाभरण के अन्तिम लेख से यह सिद्ध होता है, कि दून के दरबार में 'धन्वन्तरि-क्षपणका-ऽमरसिंह-शङ्कु-वेतालभट्ट-घटखर्पर-कालिदासाः । ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥' ये नवरत्न थे। परन्तु वराहमिहिर का समय ४२७ शाका है। इस लिये इस लोक सत्य होने में महान् संशय है। ज्योतिर्विदाभरण का कर्त्ता कालिदास भी जान पडता है, कि रघुवंशादि-कर्त्ता कालिदास से भिन्न है। (गणक-तरङ्गिणी देखो)। निदान विक्रम के विषय में विशेष लिखना व्यर्थ है। कुछ दून के विषय में १३४ व दोहे की टीका में भी लिख पाये हैं। हरिश्चन्द्र राजा त्रिशङ्क के पुत्व और अयोध्या के राजा थे। दून को सत्यता और उदारता जगत्प्रसिद्ध है। खप्न में भी यदि किसी को कुछ देना स्वीकार कर लेते थे तो प्रातःकाल उस को विना दिये नहीं रहते थे। इन की सत्यता को भङ्ग करने के लिये एक बेर विश्वामित्र ने अपनी सिद्धि के प्रभाव से इन्हे स्वप्न दिखलाया, कि एक बूढे ब्राह्मण को राजा ने अपना सब राज्य सङ्कल्प कर दिया। प्रातःकाल होने पर राजा घर से बाहर निकल उस ब्राह्मण को प्रतीक्षा में राज-कार्य छोड कर बैठे। उन की पत्नी शैव्या मध्याह्न समय जान खयं सुजान पति के स्थान में आई। कहने लगी; कि नाथ उच्छिष्ट प्रसाद के लिये यह दासी प्रार्थना करती है। राजा ने कहा, कि प्रिये स्वप्न में इस राज्य को एक ब्राह्मण के नाम से दान दे चुका हूँ, सो जब वह ब्राह्मण श्रावे, और उसे इस राज्य को सौंप कर, त्रिलोक से न्यारी काशी- पुरी में चलूँ, तब भोजन करूँ। राज-पाट, घर बाहर, धन धान्य, सब ब्राह्मण का हो चुका है, उस के धान्य को कैसे भोजन करूं। पति के साथ पति-व्रता शैव्या भी सेवा करती बैठ गई। इतने-ही में विश्वामित्र पहुंचे और कहा, कि श्राप ने खप्न में मुझे सब राज्य दे दिया है, सो सत्य-पालन कौजिये। राजा ने कहा, कि दूसौ लिये मैं आप को प्रतीक्षा-ही में बैठा है। राजा ने झारौ से जल डाल कर, झट राज्य को सङ्कल्प कर दिया। और दान-साङ्गता सिद्ध्यर्थ मन्त्री से कहा, कि ब्राह्मण को हजार अशर्फी खजाने से ला कर दो। इस पर विश्वामित्र ने कहा, कि अब तेरा कैसा खजाना; खजाने से तुझ से क्या संवन्ध । सो , यदि अपने को सत्य-सन्ध समझता है तो अपने राज्य के बाहर से हजार अशर्फी ला कर मुझे दे, नहीं तो मैं शाप दूंगा, 45