पदुमावति । १६ । सिंघल-दीप-भाउ-खंड । [१६६ - १ संग में सदा रहना चाहिए (क्योंकि उन के संग के प्रभाव से और उच्छिष्टादि प्रसाद से अधम भी उत्तम हो जाता है। नारद दासौ-पुत्र थे। दून की माता माधुओं का चौका वर्तन करती थी, और माधुओं के उच्छिष्ट से अपना और नारद का पालन करती थी। साधुओं के जूठे अन्न के भक्षण के प्रभाव से नारद महानुभाव हो गये। इन को महानुभावता को देख कर, इन्हें ब्रह्मा ने अपना पुत्त्र बनाया। बैरागियों में प्रसिद्ध कहानी है, कि नाभा, जिस ने भक्त-माल बनाई है, एक ढरकारिन का लडका था, जो अयोध्या में एक महानुभाव महन्त के मन्दिर के द्वार पर पडी रहती थी। जो कुछ साधुओं के घर पर पडे उच्छिष्ट पत्तलों पर पड़ा पावे, उसी से अपना और नाभा का पालन करे। उसी उच्छिष्ट के भक्षण के प्रभाव से नाभा महानुभाव हो गया। एक दिन महन्त जी स्नान कर भजन भाव करते थे। उसी समय एक उन के भक शिष्य को चावल से भरी नाव डूब रही थी, और उस भक्त ने अपने गुरु महन्त जी का स्मरण कर, कह रहा था, कि यदि श्राप को अनुकम्पा से नाव बच जाय, तो आधे चावलों को श्राप के चरणों में साधु-सेवा के लिये अर्पण करूँगा। त्रिकालदर्भो महन्त जी, इस बात पर ईश्वर का ध्यान करने लगे, कि 'हे भगवन् उस का बेडा पार लगा दे'। इतने-ही में नाभा, जो वहाँ खडा था, बोल उठा, कि 'महाराज श्राप की प्रार्थना को भगवान ने सुन कर, उस का बेडा पार लगा दिया। इस पर महन्त ने विस्मित हो कर, कहा, कि 'अरे नाभा, दूँ वहाँ तक पहुँच गया। नाभा ने हाथ जोड कर, कहा, कि 'श्रात्मनाथ श्राप के उच्छिष्ट के प्रसाद से अवश्य मैं पहुँच गया'। फिर महन्त प्रसन्न हो कर, कहा, कि 'अब दूं सिद्ध हो गया, भगवद्भक्तों के चरित्रों का वर्णन कर'। दूसौ श्राज्ञा से नाभा ने भक्त-माल बनाई। सच है बडों को, अर्थात् अच्छे महानुभावों को मङ्गति से क्या क्या नहीं होता ॥ दूसौ पर भर्तृ-हरि ने कहा है, कि 'जाद्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं मानोबतिं दिशति पापमपाकरोति। चेतः प्रसादयति दिनु तनोति कौति सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ॥' (नौतिशतक, श्लो० २३)। ऊंचे को लगा कर, अर्थात् बडे लोगों के लिये, फिर जीव (तक) दे देना चाहिए
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