१६६] सुधाकर-चन्द्रिका। ३६५ बा. वाल्मीकि रामा. का० । स० ५१ - ६५ ) ॥ सर्वदा निश्चय कर के बडे के द्वार की सेवा करनी चाहिए (नौति में भी लिखा है, कि 'सेवितव्यो महान् वृक्षः फलच्छायासमन्वितः । यदि दैवात् फलं नास्ति छाया केन निवार्यते' ॥) (जैसे जय और विजय सदा विष्णु के द्वार-पाल हैं)। ऊँचे से सर्वदा व्यवहार करना चाहिए (जिस में दशा हौन होने पर भी महाजन और महाधनी के कारण, वह अपने लेन देन का तगादा असभ्य व्यवहार से न करे, जिस के कारण तुम्हें क्लेश न हो )। यदि व्यवहार से संबन्ध लो, तो 'ऊँचे से संबन्ध करना चाहिए' यह अर्थ करना चाहिए, [जैसे हिमालय ने कन्या-दान दे कर, महादेव (अत्युच्च ) से संबन्ध किया ] ॥ ऊँचे पर चढने से दूर (ऊँचे) तक के खंड, अर्थात् भूमि-खण्ड सूझ पडते हैं। ऊँचे (बुद्धि-वाले ज्ञानी और पण्डित) के पास रहने से ऊँचौ बुद्धि बूझ पडती है (जैसे उद्धव, हनुमान, इत्यादि, भगवान् कृष्ण और राघवेन्द्र राम के पास रहने से उत्तम बुद्धि को पाये। व्यास लोगों को कहानी है, कि एक व्यक्ति श्राव को पौडा से श्राकुल हो पुरोषोत्सर्ग-ही की वेला में हा राम, हा राम, कह कह, कहरता था। उसी समय उसी राह से दिव्य रूप के वेष से कहौँ हनुमान् जो जाते थे सो ऐसे मल-मय स्थल में उस को विमल राम-नामोच्चारण करते देख, अनुचित समझ, क्रोधावेश से बड़े बल से उसे पादतल से मार, आगे चले गये। रात्रि में जब राम के शरीर की सेवा में तत्पर हुए, तब राम की पीठ में बडे भारी गडहे को देख कर, हाथ जोड, बडे विनय से हनुमान् राम जी से गडहे पड़ने का कारण पूछा। राम जी ने हँस कर कहा, कि यह गडहा तुमारे-हो कारण से पड़ गया है। श्राव को पौडा से जब वह श्राकुल हो, मुझे पुकार रहा था, तब तुम ने कैसे बल से उस गरौब पर लात चलाई थी। यदि वह चोट उस पर बैठती, तो वह रसातल को चला जाता; सो मैं ने उस को अपनी पौठ की ओट से बचा कर, तुमारी चोट को पीठ पर लो। उसी के कारण यह बडा गडहा है। सो हनुमान् तुम्हें आज से ध्यान देना चाहिए, कि मेरे लिये क्या विमल, क्या मल । जब प्राणी शुद्धान्तःकरण से मुझे स्मरण करे, मैं उसी क्षण में उस का अवलम्बन होता हूँ, यही मेरा विचक्षण पण है। इस पर हनुमान जी को चेत हुश्रा, और भागे सावधान होने के लिये अपना कान उमेठा) ॥ ऊँच-ही के संग में नित्य संगमन करिये, अर्थात् बडे बडे महानुभावाँ-हो के -
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