पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५०६

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४०० पदुमावति । १६ । सुन्या-भेंट-खंड । [ १८२ जानऊ- - अस = कोपा = कोपर् (कुप्यते ) का प्रथम-पुरुष में लिट् का एक-वचन । पद् = पर = परन्तु । जोगौ = योगी। केर = का । बखानू = वर्णन । अभिमानू = अभिमान । कंचन = कञ्चन - सोना । जउ = यदि। कसिअ = कसिए = कसद (कषति से बना है) कद् = कर = कृत्वा । ताता = तप्त =गर्म। जानिए (ज्ञायते)। दऊँ =दोनों में= कि = अथवा । पौत = पौला। कंचन-करौ= कञ्चन-कलो। काँचुहिँ = काचे = काच मैं । लोभा = लोभाता (लभ धातु से)। नग = नगीना = रत्न । होण: होवे (भवेत्)। पाव = पाता है ( प्राप्यते )। सोभा = शोभा। मरम = मर्म = भेद। जरिश्रा जडिया जडने-वाला- जोटक। जुर = जुटता है (जुट बन्धने )। होर = होरा। ऐसा एतादृश। हाथ = हस्त। सिंघ सिंह। मुख = मुह । घालदू = घाले = डाले (-प्रस्रवणे) प्रा. घल्लद । सउँ= से । चाल = चलावे (चालयेत् ) ॥ सरग = स्वर्ग । दंदर = इन्द्र । डरि= डर कर = दरित्वा । काँपद् = काँपता है (कम्पते )। बासुकि = वासुकि = नाग (इस ग्रन्थ का १६५ पृ० देखो)। डर = डरता है (दरति)। पतार = पाताल (३ पृ० देखो)। अस = ऐसा = एतादृश । बर = वर = श्रेष्ठ = विवाहयोग्य। पिरिथुमौं = पृथिव्याम् = पृथिवी में । जोग = योग्य । संसार = जगत् ॥ हौरा-मणि शुक ने जो यह बात कही, (उसे ) सुन कर रत्न का पदार्थ (रत्न-सेन के योग्य पद्मावती) (तप कर) लाल हो गया। जैसे सूर्य के देखने से श्रोप (तप) चढ जाता है; तैसे-हौ विरह (और भी तप्त ) हो गया और काम की सेना (और भौ) कोपित हुई। पर योगी का वर्णन सुन कर पद्मावती के हृदय में अभिमान हुआ। कि यदि कञ्चन की कली को तपा कर कसिए तब जान पड़ता है कि पौला है कि लाल । कञ्चन की कली काँच में नहीं लोभाती; यदि (सच्चा) नगीना हो तभी शोभा को पाती है। जो जडनेवाला होता है वही (सो) नग का भेद जानता है; जो वर्णन के योग्य नगीना होरा हो तो जुटे, अर्थात् यदि रत्न-सेन सच्चा पुरुष-रत्न हो तो उस का और मेरा साथ हो सकता है। (परन्तु ) ऐसा कौन है जो सिंह के मुह में हाथ डाले; कौन इस बात को पिता से चलावे अर्थात् कौन ऐसा निडर है जो मेरे पिता के कान में इस बात को डाले ॥ (जिस के ) डर से इन्द्र स्वर्ग में और वासुकि पाताल में काँपता है (उस के सामने कौन इस बात को चला सकता है)। दूस संसार और पृथिवी में कहाँ ऐसा वर है जो मेरे योग्य हो ॥ १८२॥ .. ..