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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५०७

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१३] सुधाकर-चन्द्रिका। ४०१ चउपाई। तूं रानी ससि कंचन-करा । वह नग रतन सूर निरमरा॥ बिरह बजागि बौच का कोई। आगि जो छुअइ जाइ जरि सोई ॥ आगि बुझाइ धोइ जल काढइ। वह न बुझाइ आगि अति बाढइ ॥ बिरह कि आगि सूर नहिँ टोका। रातिहिँ दिवस फिरइ अउ धौका ॥ खनहिँ सरग खन जाइ पतारा। थिर न रहइ तेहि आगि अपारा ॥ धनि सो जीउ दगध इमि सहा। अकसर जरइ न दोसर कहा ॥ सुलगि सुलगि भौतर हाइ सावाँ। परगट हाइ न कहा दुख नावाँ ॥ दोहा। कहा कहउँ हउँ ओहि सउँ जेहि दुख कौन्ह न मेट। तेहि दिन आगि करउँ प्रहि (बाहर) होप जेहि दिन सो भेंट ॥ १८३ ॥ =म 1 == त्वम् । समि = शशि चन्द्रमा । कंचन-करा= कञ्चन-कल्ला सोने की कला। रतन = रत्न-सेन । सूर = सूर्य । निरमरा= निर्मल = साफ । बजागि = वज्रानि = बिजुरी को आग। बीच = मध्य । का= किमु = क्या । छु = छूता है (स्पृशति )। जादू = जाता है (याति)। जरि=जर = ज्वलित। सोई = एव = वहौ। बुझाइ = बुझा कर (अपबुध्यते से)। धोद = धो कर आधूय जल = पानी। काढ काढता है निकालता है= निःकाशयति । अति= बहुत। बाढइ = बढती है (बर्धते)। टीका टिक (टोकते, टोक गत्यर्थ) = टिकता है = ठहरता है। रातिहि = रात्रि = रात । दिवस = दिन। फिर = फिरता है (स्फुरति)। धौका = दहकद ( (दह्यते) = दहका करता है। खनहिँ = क्षण में। सरग = स्वर्ग। पतारा = पाताल। थिर = स्थिर। रहदू = रहता है (रहति)। अपारा = अपार = जिस का पार न हो। धनि धन्य । जीउ जीव । दगध = दग्ध दाह । इमि = एवम् = ऐसा । सहा = महदू (सहते)। अकसर = एकसर = अकेला। जर =जलता (ज्वलति)। दोसर = दूसरा = दिः-सर । कहा = कह (कथयति) = कहता है। सुलगि = सुलग कर = सु-लग्य। भीतर अभ्यन्तर । होद = होद = होता है (भवति ) । सावाँ श्याम= काला। परगट = प्रकट । हा = होद = हो कर (भूत्वा) । दुख = दुःख । नावाँ = नाम ॥ 1 51