पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५३१

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१८४ - १६५] सुधाकर-चन्द्रिका। ४२५ खनहि 1 उठा = उठदू तैसा। गगन= त्राकाश। भप्रउभया

क्षण में। चलहिँ = चल (चलति) का बहु-वचन । खन = क्षण। चाँचर

चर्चरी, होली में जगह जगह पर ठहर ठहर कर, दो गोल बाँध कर, डफ पर जो गाते हैं, उसे चाँचर कहते हैं। नाँच = नृत्य । कोड = कूद = कूर्दन = कूदना । भूला = भूल गए = भूल (भ्रमति, प्रा. भुलइ) का भूत-काल ॥ खेह (खे श्राकाशे ईहा चेष्टा यस्याः मा खेहा) = खेहा = धूर । (उत्तिष्ठते) का भूत-काल। तस =तथा= (बभूव)। राति = रक्त=लाल । सकल = सब । महि = मही = भूमि। धरती धरित्री जमौन । बिरिख = वृक्ष । बन = वन । पाति = पत्ती = पत्ती ॥ सब (सखियों ) ने डलरे को फल फूल से ओढा दिया, अर्थात् फल फूलों से डालियों को भर लिया और गोल (झुंड ) बाँध कर पञ्चम-स्वर से गाने लगौं। (जितने ऊँचे खर से कोयल बोलती है उस स्वर को पञ्चम कहते हैं ) ॥ चारो ओर ढोल, दुन्दुभी, भेरी, मृदङ्ग, तुरही और झाँझ बज रहे हैं। मौंग के बाजे, शङ्ख, डफ, वंशी, और महुअर भी खर से भरे (मजे) बजने लगे ॥ और तरह तरह के जितने अच्छे बाजे कहे जाते हैं, सब बजते चले ॥ सब (सखियाँ) रथ पर चढौं, रूप से शोभित वसन्त को लिए, अर्थात् अपने रूप और आभूषण से जानाँ वसन्त-ऋतु की शोभा साथ में लिए, मठ-मण्डप की ओर चलौं ॥ (आज) वसन्त-ऋतु नूतन है और वे वालिका (सब सखियाँ ) भौ नूतन हैं, (इस लिये उत्साह से भरौं सब सखियाँ होली खेल रही हैं, जिम से) बूके हुए सेंदुर (अबौर) से धमार हो रहा है ॥ क्षण में (सब सखियाँ आगे) चलती हैं, क्षण में (गोल बाँध कर गाने से ) चाँचर होने लगता है, (दूस प्रकार) सब कोई नाँच कूद में भूल गए | मैंदुर को ऐसौ (तस ) धूर उठौ कि सब श्राकाश लाल हो गया। पृथ्वी में सब धरतौ लाल हो गई और वन में वृक्षों की पत्तियाँ भी लाल हो गई ॥ १६४ ॥ चउपाई। प्रहि बिधि खेलत सिंघल-रानी। महादेत्रो मढ जाइ तुलानी ॥ सकल देओता देखइ लागे। दिसिटि पाप सब तिन्ह के भागे ॥ प्रहि कबिलास सुनौ अपछरौ। कहाँ तई आई परमेसरौ ॥ कोई कहइ पदुमिनी आई। कोइ कहइ ससि नखत तराई ॥ 54