१९६-२०० सुधाकर-चन्द्रिका। ४३५ .. . - अर्थात् एक ही वार के दर्शन में (बेहोश हो गया कुछ भौ) खबर न रहो ॥ वह गोरख-नाथ का चेला मस्त हो कर गिर पडा ; (गोरख-नाथ के लिये १२८ दोहे को टौका देखो) जीव देह त्याग कर स्वर्ग में खेलने लगा, अर्थात् स्वर्ग को चला गया । वह वैरागी (रत्न-सेन ) जो किंगरी लिए था (उस में से ) मरतौ-वेला वही (पद्मावती पद्मावती) धुनि होने लगौ ( मरतो वेला पद्मावती का ध्यान आ जाने से मुख और किंगरी से पद्मावती पद्मावती ध्वनि निकसने लगी) ॥ जिस का मन जिस काम में लग जाता है, (उस को) वही काम सपने में भी सूझता है; इसी लिये तपस्वी तप साधा करते हैं, और (ईश्वर के ) प्रेम ही को मन का बन्धन करते हैं, जिस में मन उसी में बंधा रहे मरने के समय भी दूमरौ ओर न जाय। मरने के समय मन जिस वस्तु का ध्यान करता है; दूसरे जन्म में उसी योनि में जाता है। दूसौ लिये महानुभाव योगौ लोग सदा अपने मन को परमेश्वर में लगाए रहते हैं, जिस में मरतो वेला भी उसी में लगा रहे जिस से ईश्वर-स्वरूप हो जाय (दूस ग्रन्थ का २३१ पृ० देखो)। इस दोहे के १, ३ चरणों में सोरह सोरह मात्रा हैं इस लिये छन्दःशास्त्र में इस दोहे का नाम हरिपद है। बहुतों का मत है कि इसे दोहा न कहना चाहिए किन्तु यह खतन्त्र हरिपद नाम का छन्द हो है ॥ १६६ ॥ चउपाई। पदुमावति जस सुना बखानू । सहसहुँ करा देखेसि तस भानू ॥ मेलेसि चंदन मकु खन जागा। अधिकउ सोत सौर तन लागा ॥ तब चंदन आखर हिअ लिखे। भौख लेइ तुइँ जोग न सिखे ॥ बार आई तब गा तूं सोई । कइसइ भुगुति परापति होई ॥ अब जउँ सूर अहउ ससि राता। आपहु चढि सो गगन पुनि साता ॥ लिखि कइ बात सखिन्ह सउँ कही। इहइ ठाउँ हउँ बारति अहौ ॥ परगट हाउँ तउ होइ अस भंग। जगत दिबा कर होइ पतंगू॥ दोहा। जा सउँ हउँ चखु हेरउँ साई ठाउँ जिउ देइ । प्रहि दुख कतहुँ न निसरउँ को हतिया असि लेइ ॥ २० ॥
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