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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५५३

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२०४ - २०५] सुधाकर-चन्द्रिका। सुख से छाया में (जा कर बैठा) है, और मैं धूप में जलता हूँ। (हा इस ) जरती हुई विरहाग्नि को कौन ठंढी करे, और कौन प्रियतम (पद्मावती) से भेंट करावे । देखा कि हृदय में जो चन्दन घेवरा है उस में लिखा है कि मिल कर वियोग हुआ है, अर्थात् मैं तुम से मिली पर तुमारे सो जाने से मिलना न मिलना बराबर हो गया; (इस लेख के पढते-हौ) वह ( रत्न-सेन) हाथ मल मल कर और शिर को पोट पोट कर रोने लगा, कि (हाय मैं ऐसा क्यों सो गया) ऐसा (वहौ) सोता है जो कि निचिंत (बेफिक्र) हो ॥ २०४ ॥ चउपाई। जस बिछोउ जल मौन दुहेला। जल हुति काढि अगिनि मँह मेला ॥ चंदन आँक दाग होई परे। बुझहिँ न ते आखर परजरे ॥ जनु सर आगि होइ होइ लागे। सब बन दागि सिंघ बन दागे ॥ जरहिँ मिरिग बन-खंड तेहि ज्वाला। अउ ते जरहिँ बइठ तेहि छाला ॥ कित ते आँक लिखे जिन्ह सोा। मकु आँकन्छ तेहि करत बिछोना ॥ जइस दुखत कह साइँतला। माधउनलहि कामकंदला ॥ भाउ अंग नल जइस दमावति। नयना नदि छपी पदुमावति ॥ दोहा। प्राइ बसंता छपि रहा होइ फूलन्ह के भेस । केहि बिधि पावउँ भवर होइ उपदेस ॥ २०५॥ कउनु सो जस = जैसे = यथा। बिछोउ = विच्छुरड = बिकुडना = वियोग। जल = पानी। मौन - मछली। दुहेला = दुःखी = दुखिया । इति = से । काढि = काढ कर (श्राकृष्य) = खौच कर। अगिनि = अग्नि = आग। मेला = मेलडू (मेलयति) का भूत-काल में प्रथम-पुरुष का एक-वचन । श्राँक = अङ्क= = अक्षर । दाग = निशान = दग्ध स्थान । हाडू = हो कर (भूत्वा )। परे= परइ (पतति) का भूत-काल में प्रथम-पुरुष का बहु-वचन । बुझहि = बुझड (व्यवक्षायति 1= प्राकृत बोझेद) का बहु-वचन । श्राखर = अक्षर । परजरे = परजरदू (प्रचलति) का भूत-काल में प्रथम-पुरुष का बहु-वचन । सर = शार = वाण । आगि