पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५६५

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२१०] सुधाकर-चन्द्रिका। ४५८ - ..

परेम= प्रेम। कद् = को। सुनि = सुन कर (श्रुत्वा)। महि = महौ = पृथिवौ । गगन = आकाश। डेरा = (दरति) = डरता है। धनि = धन्य वा धन्या। बिरहिन = विरहिणौ। हिश्रा = हृदय । जहँ = जहाँ = यत्र । अस = ऐसौ = एतादृश। अगिनि = अग्नि । समाद =समाती है ( समेति) ॥ ककनू पक्षौ जैसे (लकडिओं का) चिता बनाता है ; वैसे ही चिता बना कर राजा जरना चाहा || [यूनान में कहावत है कि ककनुस, फुट पैदा होता है; नर हो होता है दूस को मदिया नहीं होती। यह सङ्गीत-शास्त्र में बडा निपुण होता है। सब गों को ठीक ठीक गाता है। जब यह पूरा हजार वर्ष का होता है तब लकडिओं का जालीदार खोता बना कर उम्र के भीतर बैठ जाता है और रागों को गाने लगता है; जब दीपक राग गाने लगता है तब खोते में भाग भमक उठती है और यह ककनुस जल कर भस्म हो जाता है, फिर दूस की राख पर बरसात का पानी पड़ने से एक अंडा पैदा होता है जिस में से फिर एक ककनुस उत्पन्न होता है। इसे वहाँ के लोग भातशजन (juST) भी कहते हैं ; दूस लिये संस्कृत में इसे अग्निजन्य कहते हैं।] (राजा को जलते देख) सब देवता श्रा कर पहुंचे (और आपस में कहने लगे कि) श्राश्चर्य है, देव-स्थान में यह कैसी बात होती है। विरहाग्नि वज्राग्नि के ऐसौ असूझ है, अर्थात् उस का तेज देखा नहीं जाता; (उसी में) शूर (रत्न-सेन वीरपुङ्गव) जरता है, जो कि बुझाने से भी नहीं बुझती। इस के जरते जो वज्राग्नि उठेगी उस के लगने से तीनों लोक (आकाश, पाताल, भूलोक) जल जायेंगे। अभी दूसो समय अवश्य चिनगिनाँ छटकेंगी (जिन से ) पहाड जल जायगा और सब पत्थल फूट जायेंगे (फूट फूट कर टुकडे टुकडे हो जायेंगे )। सब देवता भस्म हो जायेंगे । हम लोग उन की राख समेटने से भी नहीं पावेंगे। पृथ्वी और खर्ग सब तप जायँगे; (सो) हे विधाता (दूस समय ऐसा) कोई है जो दूस (राजा) को (जलने से) बचावे ॥ महम्मद कवि कहते हैं प्रेम(-अग्नि) को (ऐसी) चिनगी है (जिस का नाम ही सुन कर, पृथ्वी और आकाश डर जाते हैं। धन्य विरहिणी और धन्य (उस का) हृदय है जहाँ कि ऐसौ अग्नि समा जाती है, अर्थात् प्रेमाग्नि से राजा तो जलने लगा, पर धन्य विरहिणी पद्मावती है जिस ने दूस भाग को समेट कर अपने हृदय में रख लिया; गुरुजनों में प्रकाश होने न दिया ॥ २१ ॥