सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२१] सुधाकर-चन्द्रिका। ४८१ यूँ माँस को मार और (उसी साँस से ) मन को नाथ, यदि निश्चय मरा चाहता है तो अपने को नाश कर। प्रगट (तो) लोकव्यवहार की बात कह, और गुप्त जिम से मन लगा है उसी में मन लगाओ। (तँ ने) मैं मैं कहता सब को मिटा कर खो दिया, ( सो अब) यदि यूँ नहीं हो अर्थात् अपने को मिटा दे तो यूँ सब वही है, अर्थात् सर्वाङ्गरूप से फिर दूं पद्मावती हौ हो जाय। अरे (रत्न-सेन ) जो जीते हो एक वार मर जाय, फिर (उस के लिये) मौत क्या है और (उसे ) कौन मार सकता है। वह आप ही गुरु और आप हौ चेला है, वह (यद्यपि) आप अकेला है (तथापि वह ) आप हो सब है ॥ (वह) श्राप ही मृत्यु और आप हो जीवन है, वह आप ही शरीर और मन है। (वह) जो चाहे सो आप अपने को करे, (फिर) कहाँ का कौन (उस के ) सामने दूसरा है, अर्थात् फिर वह अद्वितीय, घट घट व्यापक परब्रह्म-रूप ही है ॥ २२१ ॥ इति पार्वती-महेशखण्डं नाम द्वाविंशति-खण्डं समाप्तम् ॥ २२॥ 61