पृष्ठ:पदुमावति.djvu/५९८

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४८० पदुमावति । २२ । पारबती-महेस-खंड । [२२१ दोहा। आपुहि मौचु जिअन पुनि आपुहि आपु करइ जो चाहइ आपुहि तन मन सोइ । कहाँ क दोसर कोइ ॥ २२१॥ इति पारबतौ-महेस-खंड ॥२२॥ - दसउँ= दशम = दसवाँ । दुधार = द्वार = दरवाजा। तारु=तार (ताल वृक्ष) वा तालू । लेखा = हिसाब । उलटि= विपर्यत्य = उलट कर । दिमिटि = दृष्टि । जो = यः । लाउ = लाता है = लगाता है (लाति)। सो = सो = वह। देखा = देख = देखता है (पश्यति)। जादू =जाय । साँस =श्वास । मन = मनः । बंदी =बन्धी= बन्धन में बंध जाना। जस = यथा = जैसे । धंसि = धूम कर। लीन्ह = लिया (ला देने से)। कान्ह = कृष्ण। कालंदी = कालिन्दी = यमुना। V = त्वम् । नाथ = नाथो (नाथ बन्धने से)। मारु =मारो। माँसा श्वास । जउँ= यदि = जो। पद = अपि = निश्चय । मरहु = मरो (मरत)। आपु = श्राप = स्वयम् (आत्मा)। करु = कुरु = करो। नासा = नाश । परगट =प्रकट = प्रगट। लोकचार = लोकाचार = लोक का आचार। कह= कथय = कहो। बाता=वार्ता बात । गुपुत गुप्त । जा सउँ= जिस से । राता=रत = लगा। अहम् = मैं । कहत = कथयन् = कहते । मैंटि = मिटा कर = भ्रष्ट कर। सब = सर्व । खोई = खो दिया। श्राहि अस्ति = है। सोई = स एव = वही। जिप्रतहिँ जीवन्नेव = जीते हो। मरद = मरे= मरेत् । प्रक एक। बारा वार। पुनि = पुनः = फिर। को = कः = कौन वा किम्। को = कः। मार =मारने । पारा पार = समर्थ। श्रापुहि = खयम् । चेला शिष्य । अकेला= एकलः = एकाकी ॥ जिन =जीवन । तन = तनु = शरीर। मोदू =स एव। करदू करे (कुर्यात् । चाहदू = चाहे (इच्छेत् ) । कहाँ क = कहाँ का = कस्य कः । दोसर = द्वितीय = दूसरा । को कोऽपि= कोई ॥ तार वा तालू के लेखा मा दसवाँ द्वार है, अर्थात् जैसे तालवृक्ष, अथवा शरीर में तालु-स्थान, ऊंचा है उसी तरह का दसवाँ दरवाजा है; जो उलट कर उस पर दृष्टि लगावे वह ( उसे ) देखता है। साँस से मन को बाँध कर जो जाय वह (वहाँ पर) जा सकता है, जैसे कि कृष्ण ने यमुना में धंस कर (कालिय नाग को) लिया (पकडा)।