४६० पदुमावति । २३ । राजा-गढ-छका-खंड । [२२५ - २२६ साधे। लिये बहुत चिल्लाया पर योगी को पूर्वाज्ञा से चेले चुप चाप नौचे मोए रह गए। दूस प्रकार वह सुन्दरी राजा के घर गई और योगी के नाक कान को बंदर ने काट खाया । यह कथा, कथासरित्सागर के बतौय लम्बक के प्रथम तरङ्ग के ३० -५३ श्लोकाँ मैं लिखौ है ॥ २२५ ॥ चउपाई। जउँ जोगिहि सुठि बाँदर काटा। एकइ जोग न दोसरि बाटा ॥ अउरु साधना आवइ जोग-साधना आपुहि दाधे ॥ सिर पहुँचाउ जोग करि साथू। दिसिटि चाहि हो अगुमन हाथू ॥ तुम्हरइ जउँ रे सिंघली हाथौ। मोरइ गुरू हसति होइ साथौ ॥ हसति नसत जेहि करत न बारा। परबत करइ पाउँ कइ छारा ॥ गढ कइ गरब खेह मिलि गए। मंदिर उठइ ढहइ भy नए ॥ अंत जो चलना कोउ न चौन्हा। जो आवइ आपुन चह कीन्हा ॥ दोहा। जोगिहि कोहु न चाहिअ तब न मोहिँ रिस लागि। पेम-पंथ जेहि पानि हइ कहा करइ तेहि अागि ॥ २२६ ॥ जउँ = यदि। नोगिहि = योगी को। सुठि = सुष्टु = अच्छी तरह । बाँदर = बंदर (वानर)। काटा = काटे (कर्त्तयेत् )। एकदू = एक एव = एक हो। जोग = योग। दोसरि = दूसरी (द्वितीय) । बाटा =वाट = पथ =राह । अउरु = अपर = दूसरौ । साधना = साधन-वस्तु । श्रावद् = (आयाति) श्राती है। साधे = साधने से = साधन करने से (माधनेन ) । जोग-साधना = योग-साधना। आपुहि = अपने को (आत्मनः)। दाधे= दग्ध करने से। सिर शिरः = शिर । साथ माथ (मार्थ )। दिसिटि दृष्टि । चाहि = बढ कर। हो = अहो ( संबोधनसूचक शब्द )। अगुमन = अग्रगमन = श्रागे। हाथू = हाथ = हस्त । तुम्हर = तुम्हारे। सिंघलौ = सिंहलो = सिंहल के। हाथी = हस्तौ। मोर = मोरे मुझे। गुरू = गुरु, गोरख-नाथ। हसति = हस्ती हाथी। साथी = संगी (सार्थों )। नसत = नष्ट । जेहि = जिसे । करत करते (कुर्वत् )। बारा वार = विलम्ब । परबत = पर्वत पहाड । कर = (करोति) करता है। पाउँ पाव = पैर । कदू - को। छारा = चार गढ = गाढ = दुर्ग = किला। गरब = गर्व = अभिमान । खेह = धूर । राख-भस्म ।
पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६०८
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