पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६०९

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२२६ - २२७] सुधाकर-चन्द्रिका। ४८१ - श्राग ॥ मंदिर = मन्दिर = ग्रह । उठद् = (उत्तिष्ठते ) उठता है। ढहदू = (ध्वंसते ) ढहता है गिर पड़ता है। भy = भए हुए। नए = नव । अंत = अन्त में। चलना = चलन = जाना । कोउ = कोऽपि = कोई। चौन्हा = चौन्हदू (चिन्हयति, चिन्हं लक्ष्म च लक्ष्मणम्-अमरकोश) का प्रथम-पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का एक-वचन । आपुन = अपना । चहचहा = (दूच्छति) चाहता है। कौन्हा = करना ॥ कोड = कोहः क्रोध। चाहि = चाहिए। मोहि = मुझे। रिस = रोष = क्रोध । लागि = लगी= लगदू (लगति) का प्रथम-पुरुष, भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग का एक-वचन । पेम =प्रेम । पंथ = पन्थाः =राह । पानि पानीय = पानी। हद = है (अस्ति)। कहा = किमु = क्या । करदू करे (कुर्यात् ) । अागि = अग्नि (राजा रत्नसेन ने कहा कि) यदि योगी को अच्छी तरह से बंदर काटे, तो भौ ( योगी के ) योग को एक ही राह है दूसरी नहौँ । और साधना साधने से आ जाती है, पर योग-साधना अपने को जला देने ही से श्राती है। योग को साथ में कर, शिर को पहुँचात्रो, और हे (वसौठ) दृष्टि से बढ कर, भागे हाथ हो (तब योग-सिद्धि हो)। यदि तुम्हारे (माथ) सिंहली हाथी हैं, (तो) मेरे साथ भी गुरु (गोरख-नाथ ) हाथी हैं। जिस को (तुम्हारे) हाथिओं को नास करते देर नहीं, और जो कि पर्वत को भी पावँ को धूर कर देता है। ( गुरु के आगे) गढ के अभिमान खेह में मिल गए हैं, मन्दिर उठता है, ढह जाता है (और फिर ढह कर ) नए हो जाते हैं । अन्त में जो ( संसार से उठ) चलना है उस चलने को कोई नहीं जानता, जो (यहाँ) आता है वह अपने ही ऐसा किया चाहता है। (हे दूत तुम ने जो कहा कि) योगी को क्रोध न चाहिए (सो ठीक है), तभी तो मुझे रिस नहीं लगी। जिस को राह में प्रेम-रूप पानी है, उस को श्राग क्या कर सकती है ॥ २२६ ॥ चउपाई। बसिठहि जाइ कही असि बाता। राजा सुनत कोहु भा राता ॥ ठाउँहिँ ठाउँ कुर सब माखे। केई अब लगि जोगी जिउ राखे ॥ अब-हूँ बेगि करहु संजोज। तस मारह हतित्रा किन होऊ ॥ मँतिरिन्छ कहा रहहु मन बूझे। पति न होइ जोगिहिँ सउँ जूझे ॥