८-१०] सुधाकर-चन्द्रिका। १३ - = = - के बीच में बोली रहती है। अंगुली और श्रेष्ठ बाहु को दिया ॥ अनुपम चरण को दिया जो कि चलते हैं। इन सब का मर्म सोई जानता है, जिस को कि ये सब नहीं हैं ॥ जवानी का मर्म निश्चय कर के (पद-अपि = निश्चय ) बूढा जानता है। क्योंकि उस ने जग में ढूंढा परन्तु जवानौ न मिलौ। बूढे की कमर झुक जाती है, इस लिये वह पृथ्वी की ओर दृष्टि कर चलता है। कवि को उत्प्रेक्षा है, कि नौची दृष्टि कर के जो बूढा चलता है, वह जवानी को ढूंढ रहा है, जो कि फिर नहीं मिलती ॥ राजा दुःख का मर्म नहीं जानता। दुःखौ जो प्राणी है, जिस के ऊपर दुःख ने चढाई किया है, वह दुःख का मर्म जानता है ॥ यहाँ "सुख" पाठ अच्छा है क्योंकि राजा सुख का मर्म नहीं जानता, कि उस में क्या प्रानन्द है। जिस पर दुःख ने चढाई किया है, वह दुःख निवृत्त होने पर सुख का पूरा अनुभव करता है। राजा का तो खस को टट्टी के नौचे जन्म-हौ हुआ है, वह उस के सुख को कैसे जाने । जेठ की दुपहरौ से झुलसा हुआ यदि खस के टट्टी को छाया में श्रावे, तब उस को जान पडेगा, कि खस के टट्टी को छाया में क्या आनन्द है ॥ शरीर का मर्म रोगी जानता है, और भोगी तो निश्चिन्त रहता है, अर्थात् बे- फिकिर हो अपनी-ही शरीर के ऐसा सब का शरीर समझता है। गोसाई, जो ईश्वर, नित्य सब के घट घट में रहता है, वह सब का मर्म जानता है | इस दोहे में कई मात्रा बढी हुई हैं। इसी प्रकार इस ग्रन्थ में दोहाओँ को मात्रा प्रायः घट बढ हैं। दोहाओं के मात्राओं का ठीक न रहना, और सर्वत्र सात सात चौपाई के अनन्तर दोहे का रहना, दून सब का कारण २१ वे दोहे में लिखा जायगा ॥६॥ चउपाई। अति अपार करता कर करना। बरनि न पारइ काह बरना ॥ सात सरग जउँ कागद करई। धरती सात समुद मसि भरई ॥ जावत जगत साख बन-ढाँखा। जावत केस रोव पॅखि पाँखा ॥ जावत खेह रेह जहँ ताइँ। मेघ बूंद अउ गगन तराई ॥ सब लिखनौ कइ लिखु संसारू। लिखि न जाइ गति समुद अपारू ॥ अइस कौन्ह सब गुन परगटा। अब-हूँ समुद बूंद नहिँ घटा ॥ अइस जानि मन गरब न होई। गरब करइ मन बाउर सोई॥
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