पदुमावति । १ । असतुति-खंड । [१०-११ दोहा। बड गुनवंत गोसाई चहइ सो होइ तेहि बेग । अउ अस गुनी सँवारइ जो गुन करइ अनेग ॥ १० ॥ पार = पार हो सकता है। काहू बरना = किसी भाँति = किसी प्रकार । साख = शाखा। बन-ढाँखा =वन के ढाँकने-वाले, अर्थात् वृक्ष । केस केश बार। रोव रोम । पाँखा = पक्ष । लिखनौ लेखनौ = कलम । अनेग = अनेक ।। कर्त्ता (परब्रह्म) का करना (करण, अर्थात् कर्त्तव्य) अति अपार है। किसी प्रकार वर्णन कर पार नहीं हो सकता ॥ सात स्वर्ग और धरती को यदि कागद करे, और सात समुद्र में मसि ( स्याहौ) को भरे ॥ जगत में जितने वृक्षों को शाखा । जितने (मनुथ्यों के ) बाल और रोम, जितने पक्षियों के पक्ष ॥ जितनौ जहाँ तक मिट्टी और रेह। मेघ के बूंद, और आकाश के तारे हैं ॥ सब को कलम बना कर संसार ( संसार भर के लिखने-वाले ) लिखे। तो भी उस ईश्वर को समुद्र के ऐसी अपार जो गति है, वह लिखौ न जाय ।। ऐसा ईश्वर ने सब गुणों को प्रगट किया है (कि उन में आज तक रत्ती भर भेद नहीं हुआ, ज्याँ के त्यों बने हैं, इस पर समुद्र का एक दृष्टान्त दिखाते हैं)। आज तक समुद्र में एक बूंद नहीं घटा, अर्थात् जैसा का तैसा बना है॥ ऐसा जान कर मन में गर्व न होना चाहिए। जो मन में गर्व करता है सो बौरहा है। वह गोसाईं ऐसा गुनवन्त (गुण से भरा है) है, कि जिस के लिये जो चाहता है, तिम को सो बेग (शीघ्र ) होता है। और ऐसा गुणों को बनाता है, जो स्वयं अनेक गुण करता है, अर्थात् जिस को स्वयं ऐसी शक्ति हो जाती है, कि अनेक गुण को बनावे। ऐसा ईश्वर ने किस को बनाया है। इस का सम्बन्ध अगलौ चौपाई में लगा कर, ग्रन्थ-कार ने परब्रह्म का वर्णन समाप्त किया ॥ १० ॥ 0 चउपाई। कौन्स पुरुख एक निरमरा । नाउँ मुहम्मद पूनिउँ करा ॥ प्रथम जोति बिधि तेहि कइ साजी। अउ तेहि प्रीति सिसिटि उपराजी॥ दीपक लेसि जगत कह दीन्हा। भा निरमर जग मारग चौन्हा ॥ जउँ नहिं होत पुरुख उजियारा। सूझि न परत पंथ अधिारा ॥
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