पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६१८

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५०० पदुमावति । २३ । राजा-गठ-छका-खंड । [२३१ =त- प्रेम । जामा=जमद् (जायते) का प्रथम-पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का एक-वचन । बिसरामा = विश्राम । अगर = अगुरु = एक सुगन्ध काष्ठ । चंदन चन्दन = एक प्रसिद्ध सुगन्ध काष्ठ । सुठि = सुष्छु = अच्छी तरह = अत्यन्त । दहदू = दहता है (दहति) भस्म करता है। सरौरू = शरीर = देह । भा= भया= हुआ (बभूव)। अगिनि अग्नि =ाग। कया=काय= शरीर । कर = का। चौरू = चौर = वस्त्र । कहानी कथानौक। सुनि = सुन कर (श्रुत्वा)। जरा = जरद (ज्वलति) का प्रथम-पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का एक-वचन । जानहुँ = जाने =जानाँ। घिउ: घो। बदसंदर = वासंदर = वैश्वानर = भाग । परा = परद (पतति ) का प्रथम-पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का एक-वचन ॥ बिरह = विरह = वियोग = जुदाई । आपु = श्राप = स्वयम् । सँभारद् = सँभारता है (सम्भारयति)। मदल = मैला= मलिन = मलयुक्त । चौर = वस्त्र । सिर = शिर । रूख = रूक्ष = रूखा । पिउ = प्रिय । करत = करते (कुर्वत्) । रात = रात्रि । पपिहा पपौहा=चातक = एक प्रसिद्ध पक्षी जो खाती हो का जल पीता है। भदू = भई (बभूव)। मुख = मुह । सूख =ष्क हुत्रा = सूख गया = सुख का भूत-काल ॥ (अपने ) गले में सोने के तार से पत्त्री को बाँध कर, जहाँ रत्न सेन के ध्यान में लगी पद्मावती थी (वहाँ पर होरा-मणि) शुक (पत्त्री को) ले गया। जैसे सूर्य को आशा से कमल, कण्ठ तक पानी पा कर भी (रवि-किरणरूप जल के) प्यास से मरता रहता है, (उसी तरह रत्न-सेन के विना पद्मावती मरती थी)। (पद्मावती को) भोग, सय्या, सुख का वासस्थान, (सब) भूल गया, जहाँ भ्रमर (रत्न-सेन) था, वहाँ हो पर सब भोग-विलास चला गया। जब तक प्रिय (के आगमन) को नहीं सुना था, तब तक धैर्य था, (श्रागमन) सुनते-हौ (अब) घडी (घरी= घटी) भर भी जीव (स्थिर ) नहीं रहता है। जब तक हृदय में प्रेम नहीं जमा था तभी तक सुख था, जहाँ प्रेम जमा कि सुख के साथ विश्राम गया। अगर और चन्दन शरीर को भस्म करते हैं, और देह पर का वस्त्र भाग हो गया है। (रत्न-सेन की) कथा कहानी सुन (सुन) कर और भी जीव जल रहा है, जानों श्राग में घी पडा हो । बिरह से ( पद्मावती) अपने को नहौँ सँभारती है, कपडा मैला हो गया है, शिर (के बाल ) रूखे हो गए हैं; रात दिन पौ, पो (प्रिय, प्रिय) करतौ पपीहा हो गई है, (और) मुंह सूख गया है । २३१ ॥