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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६३०

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५१२ पदुमावति । २३ । राजा-गठ-छका-खंड । [२१७-२३८ . अर्थात् तब उस में नग लगाया जाता है। मैं बौरही जब मठ-मण्डप में गई, उसी जगह तँ ने क्यों न (मुझ से) गाँठ जोडौ। (मेरी) आँखों को देख कर वृं बेसँभार, अर्थात् बेहोश, हो गया, (मैं उस समय ) सखिों की लाज से क्या बात बोलूं । मैं ने खेल के बहाने से (तेरे अपर) चन्दन को डाल दिया, कि दूँ जागे तो मैं जय-माता (तुझे) देऊं । तब भी वून जागा, सो गया, (मो) जागने से भेंट होती है मोने से नहौं । अब तो मैं चन्द्र हो कर आकाश (धरहरे) पर चढी इं; जो जीव दे, अर्थात् मर कर खर्ग पर चढे, वह मेरे पास श्रावे, (जीव रहते खर्ग पर थाना असम्भव है)। सौता के एक साथ में (रह कर भौ) तब तक रावण ने भुक्ति (स्वर्ग-सुख) को न ले सका (जब तक कि जीव को न दिया)। सो अब किस भरोसे से कह (कि मैं कैसे मिलूंगी), जीव तो दूसरे के, अर्थात् पिता के हाथ में है ॥ २३ ॥ चउपाई। अब जउँ सूर गगन चढि आवइ । राहु होइ तउ ससि कह पावइ ॥ बहुतइँ अइस जीउ पर खेला। तूं जोगी केहि माँइ अकेला ॥ बिकरम धंसा पेम कई बारा। चंपावति कह गएउ पतारा ॥ सुदइ बच्छ मगधावति लागौ। ककन पूरि होइ गा बइरागौ ॥ राज कुगर कंचन-पुर गऊ। मिरगावति कह जोगी भएऊ ॥ साध कुर गंधावति जोगू। मधु मालति कह कीन्ह बिओगू॥ पेमावति कह सर सुर साधा। उखा लागि अनिरुध बर बाँधा ॥ दोहा। हउँ रानी पदुमावती सात सरग पर बास । हाथ चढउँ हउँ ताहि के प्रथम करइ अपुनास ॥२३८॥ अब = दूदानीम् । जउँ= यदि = जो। सूर = सूर्य, वा शूर = बहादुर रत्न-सेन । - आकाश। चढि = चढ कर = प्रारुह्य = प्रचात्य । श्राव = आवे (आयात्) । राहु = प्रसिद्ध दैत्य । होद = होवे = भवेत् = हो। तउ= =तहि =तो। समि शशि चन्द्र । कह = को। पावद् = पावे = प्राप्नुयात् । बहुतई = बहुत लोग = बहवो हि । अन = ऐसे = एतादृश । जीउ = जीव । पर = उपरि। खेला = खेलत् । = त्वम् । गगन