पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६६९

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२५५ ] सुधाकर-चन्द्रिका। ५५२ चउपाइ। घरी चारि इमि गहन गिरासौ। पुनि बिधि जोति हिअइँ परगासी ॥ निससि जभि भरि लौन्कैसि साँसा । भइ अधार जोअन कइ आसा ॥ बिनवहिँ सखौ छूटि ससि राहू। तुम्हरौ जोति जोति सब काहू ॥ तूं ससि-बदन जगत उजिारौ। केइ हरि लौन्ह कौन्ह अँधियारी ॥ तूं गजगाविनि गरब गहोली अब कस अस छाडइ सत ढौली॥ तइँ हरि लंक हराई केहरि । अब कस हारि करसि हइ हे हरि ॥ यूँ कोकिल-बइनौ जग मोहा। को व्याधा होइ गहइ बिछोहा ॥ - दोहा। अलात्। माँसा कवल करौ तूं पदुमिनि गइ निसि भएउ बिहान । अबहुँ न संपुट खोलेसि जो रे उठा जग भान ॥ २५५ ॥ घरी= घटी = २४ मिनट । चारि चार = चत्वारि। इमि एवम् = दूस तरह से। गहन = ग्रहण । गिरामी = ग्रस्त हुई। पुनि = पुनः = फिर। बिधि = विधि = ब्रह्मा । जोति = ज्योतिः = प्रकाश। हिअ = हृदय में। परगासी=परगास (प्रकाशयति) का भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग, एक-वचन । निससि = निश्वस्य = उसास ले कर = उच्छास ले कर। ऊभि=ऊब कर = घबडा कर = उदिज्य । भरिभर कर=मृत्वा। लीन्हसि = लिया श्वास । भदू = भई = होदू (भवति) का भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग, एक-वचन । आधार । जोअन = जीवन । कदू = को। श्रासा= आशा = उम्मौद। बिनवहिं - विनमन्ति = विनय करती हैं। सखौ = सहेलौ । कूटि = छूटा। समि = शशि = चन्द्र । राहु। तुम्हरौ= तुम्हारी= श्राप को। काह = को। दूं = त्वम् = तुम । मसि- बदन = शशि-वदना = चन्द्र-मुखी। जगत = जगत् = संसार । उँजिबारी= उज्ज्वलता । केंद्र = केइ = केन = किम ने। हरि= हर = चुरा। लीन्ह = लिया = अलात् । कीन्ह किया अकृत । अधिभारी= अन्धकार = अँधेरा। गजगाविनि = गजगामिनी = हाथी के चाल ऐसी चलने-वालौ। गरब = गर्व = अभिमान । गहौलौ = ग्रहिला = आग्रह करने- वाली। अब = अधुना = इदानीम्। कस = कथम् = क्यों । अस = एतादृश = ऐसा। छाडदू = छोडती है (छन्दति)। सत = सत्ता वा सत्य । ढौली= अधीर्य =ढौली हो कर । श्रधार । 1 1