२५८-२५६ ] सुधाकर-चन्द्रिका। ५५८ (अब मेरो) शरीर में लगा है, अर्थात् शरीर जलाने के लिये शरीर में पैठा है। यदि लङ्का में भाग लगौ तो (कुछ काल में) बुझ गई, (परन्तु ) यह ऐसौ वज्रानि उत्पन्न हुई है कि बुझती ही नहीं । जान पडता है कि (शरीर के भीतर से ) भाग के पहाड उठते हैं और वे सब अङ्गो में अङ्गार से लगते हैं। (जान पड़ता है कि) कप कंप कर, अर्थात् गल गल कर, मांस सुरङ्ग मैं चली जाती हैं, ( उस दुःख से) सब माम रक्ताश्रु के बहाने रो रही हैं । ऐमा (जान पडता है कि कोई ) एक क्षण में मार कर माँस को दूंजता है, फिर दूसरे क्षण में जिला कर (भय दिखाने के लिये) सिंह के ऐसा गर्जता है। अरे (हीरामणि) दूस दाह से अच्छा तो मर जाना है, जीव दे देना अच्छा पर दूस दाह का महना नहीं अच्छा ॥ ( संसार में) जहाँ तक मलयाचल चन्दन हैं और सब जलस्थल में जितने पानी हैं, सब एकट्टाँ हो (मेरे पास आ कर यदि बुझा। तो भी शरीर को भाग नहीं बुझतौ) ऐसा मुझे जान पडता है। यहाँ पर यह कवि को अतिशयोक्ति है ॥ २५८ ॥ चउपाई। हीरामनि जो देखौ नारी। प्रौति बेलि उपनी हिअ बारी ॥ कहेसि कस न तुम्ह होहु दुहेलो। अरुझो पेम प्रौति कइ बेलौ ॥ प्रौति-वेलि जनि अरुझा कोई । अरुझा मुअइ न छूटइ सोई ॥ प्रौति-बेलि अइसइ तनु डाढा। पलुहत सुख बाढत दुख बाढा ॥ प्रौति-बेलि कइ अमर सो बोई। दिन दिन बढइ खौन नहिं होई ॥ प्रौति-बेलि सँग बिरह अपारा । सरग पतार जरइ तेहि झारा॥ प्रौति अकेलि बेलि चढि छावा। दोसर बेलि न सरिवरि पावा ॥ दोहा। प्रीति-बेलि उरझाइ जब तब सो छाँह सुख साख । मिलइ पिरौतम आइ कइ दाख बेलि रस चाख ॥ २५६ ॥ हौरामनि = हीरामणि (शुक)। देखौ = देखद (पश्यति) का भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग, एक-वचन । नारी स्त्री, वा नाडौ हाथ की। प्रौति = स्नेह । बेलि = वल्ली = लता।
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