सुधाकर-चन्द्रिका। ५६५ प्राण। कया चढत = चढते (उच्च लन् ) । रनि =रजनौ रात । गढ = गाढ = दुर्ग = किला । होइ गा= हो गया। भोरू = भोर -सबेरा । श्रावत = आते = श्रायन् । बार = द्वार- दरवाजा । धरा धरद (धरति) का भूत-काल, पुंलिङ्ग, एक-वचन । कद = कर = कृत्वा । चोरू = चोर । अब = इदानीम् = अधुना। लेदू = ले कर = श्रालाय। देन = देने । गए = जादू (याति) का भूत-काल, पुंलिङ्ग, बहु-वचन । ओहि = उसे । सूरी=शूली -फाँसी। तेहि साँ= तिसौ से = उमौ से। अगाह = अगाध = बेहद । बिथा = व्यथा = पौडा। तुम्ह = तुम्हें । पूरी= पूरदु (पूर्यते ) का भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग, एक-वचन । जीउ= जीव काय = शरीर । रोग मर्ज। जान =जान (जानाति) जानता है। पद् = अपि= निश्चयेन । रोगी = रोगिश्रा = जिसे रोग जत्रा हो । सूरत । आपन = अपना वा अपनी। पिंड पिण्ड = देह । कमावा कमाया
कमाइ का भूत-काल, पुंलिङ्ग, एक-वचन । फेरि=फिर पुनः । श्रापु= त्राप
स्वयम् । हेरादू = हेरादू = हरित । रहा रहद् (रहति ) का भूत-काल, पुंलिङ्ग, एक- वचन । खंडहि = खण्ड में । काल = प्राण लेने-वाला यमदूत | पावद = प्राप्नोति=पाता है। हेरि= हिण्डित्वा = हेर कर = ढूंढ कर ॥ हीरामणि ने जमीन पर (अपने ) मस्तक को रकवा (और श्राशीर्वाद दिया कि) हे रानी उन्हें युग युग सुख और सिंहासन है। जिस के हाथ में (जिलाने-वाली) जडौ और मूली है, वह (राजा रत्न-सेन ) योगी अब दूर नहीं है। तुम्हारा पिता ( केवल) राज्य का भोगी है, ब्राह्मण को तो पूजता है (पर) योगी को मरवाता है। पुरद्वार की राह पर कोतवाल बैठा था, (वहाँ ) प्रेम का लोभी (रत्न-सेन योगी) सुरंग लगा कर पैठा। रात में गढ पर चढते चढते भोर हो गया, (ऊपर ) दरवाजे पर आते आते (कोतवाल के सिपाहिओं ने) चोर समझ कर पकड लिया। अब ( लोग ) उसे (रत्न-सेन को) पकड कर फाँमौ देने गए हैं, दूसौ से तुन्ह भी अगाध पौडा से भर गई। अब तुम्ह जीव और वह योगी शरीर है, अर्थात् योगी का प्राण तुम हो और उस को खाली वेप्राण को शरीर वहाँ पर पडी है, निश्चय समझो कि रोगिआ हौ शरीर के रोग को जानता है, अर्थात् तुम्ह दुखिश्रा हो तुम्ही समझती हो कि उस वेचारे दुखित्रा पर क्या बीतता होगा ॥ तुम्हारा रूप और अपना प्राण ले कर (रत्न-सेन ने ) फिर से (योगाभ्याम के बल्ल से) अपनी पारीर को बनाया अर्थात् अपनी देह को नई कर डाला है - .