पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५६६ पदुमावतौ । २8 । मंत्री-खंड । [२६१ - २६२ a 1 जिसे कि योगी लोग काय-कल्प कहते हैं । (दूसी से ) उस खण्ड में, अर्थात् नए देह के अवयव में श्राप हेराय गया है (दूसरौ देह हो जाने से) ढंढने से भौ ( उसे ) काल नहीं पाता है (दूसौ लिये अभौं तक जीता है) ॥ २६१ ॥ चउपाई हौरामनि जो बात यह कही। सुरुज के गहन चाँद पुनि गहौ सुरुज के दुख जो ससि भइ दुखौ। सो कित दुख मानइ करमुखौ ॥ अब जउँ जोगि मरइ मोहि नेहा। मोहिँ भोहि साथ धरति गगनेहा ॥ रहइ तो करउँ जरम भरि सेवा । चलइ तो यह जिउ साथ परेवा ॥ कउनु सो करनौ कहु गुरु सोई। पर-काया परबेस जो होई॥ पलटि सो पंथ कउनु बिधि खेला। चेला गुरू गुरू होइ चेला ॥ कउनु खंड अस रहा लुकाई। आवइ काल हेरि फिरि जाई ॥ दोहा। चेला सिद्धि सो पावई सउँ करइ उछेद। गुरू करइ जउँ किरिपा कहइ सो चेलहि भेद ॥ २६२ ॥ हीरामनि = हीरामणि (क)। जो = जो। बात = वार्ता । यह = अयम्, वा दूयम्, वा इदम् । कह = कहद (कथयति) का भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग, एक-वचन । सुरुज = सूर्य । के = के। गहन = ग्रहण । चाँद = चन्द्र। पुनि = पुनः = फिर । गही गहद् (ग्राह्यते ) का भूत-काल, स्त्रीलिङ्ग, एक वचन । दुख = दुःख । ससि = शशि = चन्द्र । दुखौ दुःखित । सो = सा = वह । कित = कुतः = कस्मात् = कयौँ । मान मन्येत =माने । करमुखौ = कृष्ण मुखौ = जिस का काला मुँह हो। अब = इदानीम् = अधुना। जउँ= यदि = जो। जोगि = जोगी = योगी। मरद = मरेत् = मरे । मोहि मोहि = मेरे। नेहा = नेह = स्नेह । श्रोहि = श्रोहि = उस का । साथ = सार्थ = संग । धरति = धरती = धरित्री = पृथ्वी। गगनेहा = गगन में = श्राकाश में। रहदू = रहे (रहेत् )। तो= तो तर्हि । करउँ= कुर्याम् करूँ। जरम= जन्म । भरि = भर = खिदमत = टहल । चल = चले (चलेत् )। जिउ = जीव = प्राण । परेवा = पारावत = पचौ। कउनु = कौन = को नु । करनी = करणी = कर्त्तव्यता । - । पूरा। सेवा