पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६९२

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५७४ पदुमावति । २५ । सूरौ-खंड । [२६५ लिये। भप्रउभया= जप । जस= 1 = यः। अस= समझना)। लोग = लोकाः । कहहिँ = कथयन्ति कहते हैं। यह श्रयम्। होत्रा होवे =भवेत् । जोगौ = योगी। राज-कुर = राज-कुमार =राज-पुत्त्र । अस्ति = है। बिओगी = वियोगी विरही। काह लागि = कस्या अर्थम् = किसी के अभूत् । हद = अस्ति है। हिदूं हृदय = हृदय में । मो= सो = वह । माल = माला । करद = करोति = करता है। मुख = मुँह । जपा: जैसे ही = यदैव । मारद कह = मारने के लिये। बाजा = बजा = अबादौत् । बरू =र्य तुरहौ। हँसा = अहसत् हँस दिया। मन =मनसः = मन से। सूरू = सूर्य = रत्न-सेन, वा सूरू शूर = बहादुर रत्न-सेन । चमके = चमक उठे चकमे । दसन = दशन = दाँत । उँजिबारा = उज्वलन = उजेरा = प्रकाश । जो तहाँ = तत्र । बौजु = विद्युत् = बिजुरौ । एतादृश = ऐसा। मारा-ममार = मार दिया। केर = का । करहु = कुरुत = करिए। पडू अपि= निश्चय । खोजू = खोज = अन्वेषण । मकु = मैं ने कहा क्या जानें। भोजू = भोज = धारा नगरी का प्रसिद्ध संस्कृतानुरागौ राजा ॥ सब = सर्वे । पूँछहिँ = पृच्छन्ति = पूछते हैं । कह कथय = कह। जाति = ज्ञाति। जरम =जन्म। उ = अपि च = और । नाओं = नाव = नाम । ठाओं = ठाव = स्थान । रोअदू कर =रोने का। कहि भात्रा = किस भाव से = किस अभिप्राय से= केन भावेन ॥ तपखिौँ को (लोग) बांध कर जहाँ शूली खडी की गई थी (वहाँ) ले पाए । (उस के देखने के लिये) सब सिंहल पुरी एकट्ठी हुई, अर्थात् सिंहल के सब लोग एकटे हुए। (सब से) पहले गुरु (रत्न-सेन को शूली) देने के लिये ( लोग ) ले श्राए, सब लोग उस के रूप को देख कर पछताने लगे। लोग कहते हैं कि यह योगी नहीं है कोई विरही राज-कुमार है। किसी के लिये तपस्खौ हो गया है, हृदय में वह माला (ऐमौ) है, (उमौ के नाम का) जप मुख से करता है। जैसे ही मारने के लिये अर्थात् शूलौ देने के लिये तुरही बजौ, (और शूलौ देखाई गई उसी क्षण) शूली को देख कर मन से, अर्थात् (लोगों को देखाने के लिये बाहर और बात और मन में और बात नहीं किन्तु सच्चे ) हृदय से हंसने लगा। ( हंसने से) दाँत चमक उठे। (सब जगह) उजेला हो गया, जो जहाँ खडे थे सब (जानौं) बिजली के मारे हुए हैं। (सब आपस में चौंक कर कहने लगे कि) योगी का खोज करो, क्या जाने यह राजा भोज न हो । - - -