पृष्ठ:पदुमावति.djvu/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२ पदुमावति । १ । असतुति-खंड । पाप जाइ जउँ दरसन दौसा। जग जुहारि कइ देइ असौसा ॥ जइस भानु जग ऊपर तपा। सबइ रूप ओहि आगइ छपा॥ अस भा र पुरुख निरमरा। स्वर चाहि दस आगरि करा ॥ सउँह दिसिटि कइ हेरि न जाई । जेड देखा सो रहा सिर नाई ॥ रूप सवाई दिन दिन चढा । बिधि सुरूप जग जपर गढा ॥ दोहा। चय कर रूपवंत मनि माँथइ चाँद घाटि ओहि बाढि । मेदिनि दरस लोभानी असतुति बिनवइ ठाढि ॥ १६ ॥ रुपवंत

रूपवान्। काहा = क्या। चाहा = चाहता है। चउदसि = चतुर्दशी। चाहि

बढ कर। दौसा = देखा । जुहारि = प्रणाम = सलाम । आगरि = अग्रा = श्रेष्ठ । सउँह = साँह सम्मुख । हेरि= देख। माँथ = माँथे में। चाँद = चन्द्र । मेदिनि = मेदिनी = पृथ्वौ। फिर (वह) ऐसा रूपवान है, कि क्या बखान करूं। जगत में जितने लोग हैं, सब (उस के) मुख को चाहते हैं ॥ ब्रह्मा ने चतुर्दशी के चन्द्रमा को जो बनाया है (पूर्णिमा के चन्द्रमा में विशेष कर के कलङ्क देख पडता है इस लिये यहाँ उसे छोड दिया है) तिस से भी बढ कर (उस का) उज्वल रूप है ॥ यदि दर्शन दौख पडा, अर्थात् उस के रूप का दर्शन हो गया तो पाप चला जाता है। जगत (जगत के सब लोग ) सलाम कर कर के (उसे) आशीर्वाद देता है ॥ जैसे जग के ऊपर सूर्य तपता है (उसी प्रकार यह भी तप रहा है, दूसौ लिये) उस के आगे सब रूप छिप गया ॥ ऐसा (वह) सूर जाति वा बहादुर अथवा सूर्य निर्मल पुरुष हुआ, कि सूर से बढ कर दश गुनौ (उस में) श्रेष्ठ कला है ॥ (पहलौ चौपाई में जिस सूर को ग्रहण करना वही दूसरी में भी क्रम से लेना चाहिए ) । सामने दृष्टि कर (वह) देखा नहीं जाता। जिस ने देखा वह शिर भुका कर रह गया ॥ (उस का) दिन दिन सवाई रूप चढता है। ब्रह्मा ने उस का सुन्दर रूप जग के ऊपर गढा है, अर्थात् सब से बढ कर बनाया है । ऐसा रूपवान है कि (उस के ) माँथे में मणि (ज्योति) है। (जो बहुत रूपवान् होता है, उस का माँथा ऐसा चमकता है, मानों उस में मणि है)। उस के (रूप के) बाढ के आगे चाँद घट गया। -