पृष्ठ:पदुमावति.djvu/७१२

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पदुमावति । २५ । सूरी-खंड । [२७४ - २७५ - कहाँ = कुत्र। छरह - करने के लिये = नाश करने के लिये = क्षरणार्थ । पावा = पाव (प्राप्नोति) का भूत-काल, प्रथम-पुरुष, एक-वचन । कहा = कथम् = क्यौँ। चित चित्त = मन । भंग भङ्ग = विकार ॥ और (फिर) जो वहाँ भाट भागे (खडा) था (वह) राजा गन्धर्व-सेन के क्रोध होने पर विनय कर के खड़ा हो गया। (और फिर क्रोध में आ कर कहने लगा कि ) भाट ईश्वर की कला है, सब राजा लोग (भाट को) अर्गला के लिये (अनुचित कार्य के रोकने के लिये ) रखते हैं। जो भाट (सदा) अपनी मौत देखा करता है, उस से कौन क्रोधी क्रोध कर सकता है, अर्थात् जो मौत को नहीं डरता उस पर कोई क्या क्रोध करे। (भाट की ऐसी खरी बात सुन कर) गन्धर्व सेन को आज्ञा हुई कि (अरे भाट) क्या मौत की सौढी पर चढा है। क्यों ऐसौ अनुचित वाणी (मन में ) रखता है, क्यों बखेडा करता है, क्यों नहीं भाट के ऐसौ बात करता। (तेरौ) जात (ईश्वर को) कला है (उस में ) क्यों दोष लगाता है, क्यों राजा को बाएँ हाथ से आशीर्वाद देता है। तेरा नाम भाट है, ( दस लिये) क्या तेरे जीव को मारें, ( सावधान हो जा) अब भी गर्दन को झंका कर (उचित बात को) बोल ॥ अरे दूँ तो भाट और यह योगी, तुझ से और दस (योगी) से कहाँ का सङ्ग । ( अपने को) नाश करने के लिये कहाँ ऐसा ( योगी का) मङ्ग पाया, क्यौँ (तेरा) चित्त भङ्ग हो गया ॥ २७४ ॥ चउपाई। - जो सत पूँछसि गंधरब-राजा। सत पइ कहउँ परइ किन गाजा॥ भाटहि कहा मौंचु सन डरना। हाथ कटार पेट हनि मरना ॥ जंबुदीप जो चितउर देसू। चितर-सेन बड तहाँ नरेस्॥ रतन-सेन यह ता कर बेटा। कुल चहुबान जाइ नहिँ मेटा ॥ खाँडे अचल सुमेरु पहारू । टरइ न जउँ लागइ संसारू ॥ दान सुमेरु देत नहिँ खाँगा। जो ओहि माँग न अउरहि माँगा ॥ दाहिन हाथ उठाण्उँ ताहौ। अउरु को अस बरभावउँ जाही॥